Thinking
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कलम को कौम की मेरे कभी जो याद आती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल— कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है
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अगर गुल से मुहब्बत हो किसी बुलबुल को गुलशन में
वो नग़्में फिर मुहब्बत के शबो दिन गुनगुनाती है
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निखरता हुस्न फिर ज़्यादा चमन के और फूलों से
कली जब शबनमी बूंदों से से थोड़ा भीग जाती है
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कली के थरथराते लब कहा ये आज भँवरे से
न जाओ छोड़ कर तन्हा ये दूरी दिल जलाती है
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न छोडे़ हौसला माझी जो दरिया पार करना तो
भँवर मैं जाके भी कश्ती निकल कर पार जाती है
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नही हो बाप का साया किसी के भी अगर सिर पर
बिना मां की दुआओं के वो किस्मत रूठ जाती है
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भुला कर सारे शिकवे तू सभी से प्रेम कर “प्रीतम”
ये नेकी आख़िरत में तो सभी के साथ जाती है
प्रीतम राठौर
श्रावस्ती (उ०प्र०)