माँ
” ” माँ ” ”
माँ माँ माँ
आखिर क्या है माँ
शब्दों से परे व्यक्तित्व जिसका
अर्थों से परे कृतित्व जिसका
माँ की व्याख्या करना मुश्किल
हर साँस में शामिल अस्तित्व जिसका
हमको इस दुनिया में लाती है माँ
संसार का प्यार लुटाती है माँ
उसकी दुनिया हम तक सीमित
हमें खुश देख खुश हो जाती है माँ
कभी पुचकारती , कभी सहलाती
गलती पर फटकार भी लगाती है माँ
दुनिया की हर मुश्किल से लड़ जाती
पर अपने अंश की व्याकुलता देख
घबरा जाती है माँ
माँ का रूप सबमें है एक
पशु , पक्षी या जीव अनेक
सृष्टि के हर जीव की होती है माँ
शक्ल- सूरत में अलग
पर भावों में एक होती है माँ
_नीरजा ‘नीरू’
” लखनऊ”