ज़िन्दगी से तो क़ज़ा की ही शनासाई है
ज़िन्दगी से तो क़ज़ा की ही शनासाई है
हर कोई शख़्श यहाँ एक तमाशाई है
दिल ही जाने है सदा इसको ख़ुदा भी जाने
दर्द कितना है मुहब्बत में न पैमाई है
बाद तेरे वो रहा अबकि दफ़अ चुप-चुप सा
इक उदासी सी तो चेहरे पे सदा छाई है
मुद्दतों बाद मुझे देख के वो मुस्काता
फीकी-फीकी ही सही लब पे हंसी आई है
एक रहने की कसम जिसने हमेशा खाई
उसने दीवार खड़ी की वो यही भाई है
साथ देता ही नहीं कोई ज़माना कैसा
दौर ऐसा है कि उल्फ़त की तो रुस्वाई है
मिट भी जाती है हरिक शै जो जहाँ में ज़िन्दा
जो न मिटती है मुहब्बत वो ही सच्चाई है
एक है रब जो सदा यार सभी को करता
उसके दम से ही सदा सबने शिफ़ा पाई है
सोचकर बात यही ग़म भी चले आते हैं
ग़म का ‘आनन्द’ ज़माने से तमन्नाई है
– डॉ आनन्द किशोर