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8 Sep 2018 · 1 min read

ज़माना ए आशिकी

कभी दिल लगी भी पसन्द थी, कभी आशिकी से भी प्यार था
हमें दिल लगाने का शोक था, कभी उन के दिल मैं भी प्यार था

कभी नज़रों की भी ख़ताएँ थी, के गुनाह की भी दुआएं थी
कभी देखना उसे इक नज़र मुझे मिस्ल ए बहश्त ओ बहार था

मेरे ख्वाब मैं भी वही नज़र, मुझे थी जहाँ की क्या खबर
वो झुकी झुकी सी निगाह मैं, वो ग़ज़ब ग़ज़ब का खुमार था

मेरी धड़कनो की आवाज़ से मेरे हमनशीं भड़क उठे
था इज़हार ए इश्क़ का मरहला के ये दो दिलों का क़रार था

उन्हें इश्क़ था मीरे इश्क़ से उन्हें प्यार था मीरे प्यार से
वो भी शाद थे मैं भी शाद था क्या सुकून ए क़ल्ब ओ क़रार था

कभी इश्क़ ही था मश्ग़ला, कभी चाहतों का था सिलसिला
कभी “सरफ़राज़” मशहूर थे, गरम आशिकी का बज़ार था

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