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10 Dec 2017 · 1 min read

ग़ज़ल!!

अपनी तबाही का ऐसे जश्न यूँ मानाती हैं
सफर में भी जिंदगी लेती हैं इम्तिहाँ अपना।।

दिल की धड़कनों पे हैं अब किसी का हक हैं
उस निशां पे हम कैसे सजाये आशियाँ अपना।।

चाँद पे बनाते हैं एक मिट्टीनुमा मकाँ अपना
उस शहर में भी बाकी हो अब निशां अपना।

हम साधू, जोगी,मस्तकलंदर रहते अपनी धुन में सदा
क्या जमीन,नदियां,पर्वत अब तो सारा आसमाँ अपना।।

दो चार मीठी बातो का सागुफ़ा छोड़ा दिया हैं उन्होंने
सियासतदाँ के लिये क्यू बेकार करते हो जुबां अपना।।

वो शहर,गाँव,गालियां,और अपने पुराने चौबारे
समय के साथ बदल रही अब लोगो की जुबाँ अपना।।

जिंदगी के बाज़ार में बैठे हैं यहाँ खरीददार तमाम
सौदागरों की तरह बढ़ाते चलो अब कारवाँ अपना।।

®आकिब जावेद

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