ग़ज़ल
ग़ज़ल जारी…..
2122. 2122. 212 PPSB. 89
नज़रों से अपनी गिरा मत देना तुम
अपना हूँ तेरा दग़ा मत देना तुम
कांटों में जीकर भी हमने देखा है
राहों में कांँटे बिछा मत देना तुम
बरसों से हम तो नहीं सो पाए ह़ैं
लोरी यूँ गाकर सुला मत देना तुम
सामने है गहरा समंँदर जो मेरे
प्यास यूँ मेरी बुझा मत देना तुम
खाए है धोखे तो चाहत में बहुत
धोखे को चाहत बना मत देना तुम
खुशियाँ बेशक दूर अपने से सही
जिन्दगी में गम मिला मत देना तुम
रहता अंधेरा चिराग तले सदा
रौशनी जो है बुझा मत देना तुम
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र