ग़ज़ल
212. 212. 212. 212.
मार डालें न बातों के नश्तर हमें
कर न डालें ये सबसे ही बदतर हमें
उनकी आँखों में तो हम हैं चुभते बहुत
छोड़ना पड़़ न जाये कहीं घर हमें
चांद की चाँदनी तो है तुमसे सनम
लूट कोई न ले दिल में बस कर हमें
चाहतों ने तो हमको दिवाना किया
मार डाला है जालिम ने यूँ पर हमें
कहता अक्सर वो हम तो तेरे यार हैं
आज तक है मिला वो न दिलवर हमें
धड़के दिल मेरा ऐसे कि वो आ गये
काश मिल जाता अब ऐसा मंजर हमें
आँखें मिलती रहीं दर्द बढ़ता रहा
मारता राह में था वो कंकर हमें
नदिया बहती रही मुझसे कहती रही
मैं समा जाती हूँ लूटे सागर हमें
देखता है हमें घूरता है हमें
अच्छे लगते नहीं उसके तेवर हमें
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र