ग़ज़ल
ग़ज़ल
ख़्वाब-ए-ख़्यालो में पली मोहब्बतें कैसी
बेलिबास नाच रही रफ़ीक़ो ! वहशते कैसी
न रज़ा-ए-चाँद हम पर है न मेहर-ए-रब कोई
फिर क्यों सोच रहे हो कि ये क़यामतें कैसी
साथ उसके ही ख़ुदा भी मेहरबाँ इतना
ग़म-ए-रुसवाई में ‘पूनम’अदावतें कैसी
तबस्सुम सी निग़ाहें दुश्मनों की नोचती हैं
लुट गया रहबर-ए इश्क तो अब इनायतें कैसी
शमां की चिंगारियों से जलते चिराग थे हम
जो बुझ गए तो तूफानों से शिकायतें कैसी
हर कोई बे-ख़बर ज़ुल्म को अंज़ाम देकर भी
झूठ का बोलबाला हो जहाँ तो सदाक़तें कैसी
‘पूनम’ बचा ले खुद को दौर-ए-शैताँ से यहाँ
न फिर कहना कि ये बेगैरत सियासतें कैसी
— पूनम पांचाल —
अदावतें – नफ़रत
तबस्सुम-सी – हँसती हुई
सदाक़तें – सच्चाई