ग़ज़ल
ग़ज़ल
चले थे मंजिल की ओर कदम लड़खड़ाया करते थे,
मुफ़लिसी को देख लोग मज़ाक उड़ाया करते थे।
मेरी तरक्की से जलने वालो के क्या तकलीफ़,
मेरे अज़ीजों को मेरे ख़िलाफ़ भड़काया करते थे।
मेरे हुश्न के जलवों को वे देख दिन रात बैचेन होते,
गली मोहल्लों के आशिक़ दिल को धड़काया करते थे।
जब पहरा लगा हमारी मोहब्बत की राहों में,
हम घर के पिंजरे में पंछी बन फड़फड़ाया करते थे।
होती थी कभी लैला मजनू के बीच नोक झोंक,
हम नेवला और साँप की तरह झगड़ाया करते थे।
खुली देख घर की खिड़कियों को राह चलते,
हम उन्हें पत्थर मार भड़काया करते थे।
रचनाकार गायत्री सोनू जैन