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18 Sep 2016 · 1 min read

ग़ज़ल- रेत पर जिन्दगी

ग़ज़ल- रेत पर जिन्दगी
■■■■■■■■■■■■
रेत पर जिन्दगी का महल दोस्तोँ
ऐसा लगने लगा आजकल दोस्तोँ

क्या ग़ज़ब का तरीका है उसने चुना
दोस्त बन के किया है कतल दोस्तोँ

ग़म से डर जाऊँगा ये जरूरी नहीँ
कीच से कब डरे है कमल दोस्तोँ

ग़म नहीँ है मुझे यार ऐसा मिला
चीज मिलती कहाँ अब असल दोस्तोँ

मेरे महबूब का कोई सानी नहीँ
कोई उसका नहीँ है बदल दोस्तोँ

जाने क्या सोचकर लूटते हो हमेँ
ले के जाओगे क्या चल-अचल दोस्तोँ

आज ‘आकाश’ क्योँ दूसरोँ के लिए
आँख होती नहीँ है सजल दोस्तोँ

– आकाश महेशपुरी

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