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17 Sep 2016 · 1 min read

ग़ज़ल- मुँह छिपाये जा रहा था वो मुझे पहचान कर

ग़ज़ल- मुँह छिपाये जा रहा था वो मुझे पहचान कर
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
है ग़रीबी साथ पर ये दुख हुआ है जानकर
मुँह छिपाये जा रहा था वो मुझे पहचान कर

नाव थी मझधार मेरी वो किनारा कर गया
जी रहा था मैँ जिसे पतवार अपनी मानकर

बात आई थी हवा से पाप धुलता है कहीँ
मैल है दिल मेँ अगर तो क्या करेँगे स्नान कर

ये धरा भी एक दिन मिट कर रहेगी तय सुनेँ
है ज़मीँ ये कह रही मत बैठना अभिमान कर

कह रहा “आकाश” मुझको वो कबूतर आजकल
देखता जैसे शिकारी तीर कोई तान कर

– आकाश महेशपुरी

1 Comment · 438 Views
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