ग़ज़ल (तुम्हारे लिए घर सदा ये)
ग़ज़ल (तुम्हारे लिए घर सदा ये)
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तेरे वास्ते घर सदा ये खुला है,
ये दिल मैंने केवल तुझे ही दिया है।
तगाफ़ुल नहीं और बर्दाश्त होता,
तेरी बदगुमानी मेरी तो कज़ा है।
तू वापस चली आ यही मेरी मन्नत,
किसी से नहीं कोई मुझको गिला है।
हँसी से न समझो मुझे ग़म न कोई,
ये चेह्रा तुझे देख कर ही खिला है।
लगें मुझको आसेब से ये शजर सब,
जलन दे सहर और चुभती सबा है।
मैं तड़पा बहुत हूँ जला भी बहुत हूँ,
धुआँ ये उसी आग का दिख रहा है।
‘नमन’ की यही इल्तिज़ा आज आखिर,
बसा भी दे घर ये जो सूना पड़ा है।
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया