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6 Sep 2018 · 1 min read

ग़ज़ल/इंकलाबी उड़ान

कहाँ ग़ुम है वो वादा-ए-फ़र्दा अब नज़र भी आए
सामां का पर्चा दुकां का पर्चा अब नज़र भी आए

वो खड़ा है देखों आख़िरी दरख़्त प्यासा आज भी
नदी पहुँची ही नहीं उस तलक अब समंदर भी आए

ज़रा सी है ज़िन्दगी फ़िर क्यूं गुमाँ है, मीनारों जैसा
मैं ख़ुदा नहीं मैं इंसां हूँ ,कोई इंसां मेरे घर भी आए

ये आँखें मुन्तज़िर हैं,कोई कबूतर ख़त लेके उड़ा है
सूरत बदल गयी मेरे मुल्क़ की ऐसी ख़बर भी आए

इन मज़हबी अँधेरों में मुझें कुछ दिखायी नहीं देता
इस अंधेर नगरी में अब कोई फरिश्ता उतर भी आए

ये उन मल्लाहों का जहाँ है जो, जो चाहें फ़रमाते हैं
इन्हें डर नहीं ख़ुदा का, इनकी कश्ती में दर भी आए

मुझें तो तेईस बरस का भगत याद आता है क्या करूँ
इन करोड़ो परिंदों में इंकलाबी उड़ानों के पर भी आए

__अजय “अग्यार

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