है शासन भी अंधा बहरा,हमरी किस्मत मजबूर हुई।
मजदूर दिवस पर मजदूरों को समर्पित एक गीत
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चल छोड मुसाफिर दौड़ चलें,यह दुनिया हमसे दूर हुई।
शहरों में अपना नहिं कोई,भ्रम तन-मन से काफूर हुई।।
ये महल बनाऐ हैं हमने,
लेकिन छुपने को जगह नहीं।
इक-इक रोटी को तड़फ रहे,
मिटती नहिं तन की आग कहीं।
है निर्ममता का घोर कृत्य,यह दुनिया कितनी क्रूर हुई।
चल छोड मुसाफिर दौड़ चलें, यह दुनिया हमसे दूर हुई।
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खून पसीना बहुत बहाया।
अपने तन को खूब सताया।
मन में लेकर आस आये थे।
नयी भोर के गीत गाये थे।
लेकिन निकला घोर अंधेरा,हिम्मत अब सारी चूर हुई।
चल छोड़ मुसाफिर दौड़ चलें,यह दुनिया हमसे दूर हुई।
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काली छाया का पटाक्षेप,
इस जीवन पर पड़ने वाला।
पूरन मासी की रात गई,
मावस का दिन आने वाला।
है शासन भी अंधा बहरा,हमरी किस्मत मजबूर हुई।
चल छोड मुसाफिर दौड़ चलें, यह दुनिया हमसे दूर हुई।।
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अटल मुरादाबादी