हे सत्य कहाँ छिपे हो तुम !
हे सत्य कहाँ छिपे हो तुम
अपने से ही मुँह मोड़े ।
प्रतिद्वंद्वी ये झूठ तुम्हारा
तुम्हारे ही सिर चढ़ बोल रहा है,
तुम्हें चाहने वालों के इस देश में
अपनी ही धुन चला रहा है ,
क्यों उस प्रतिद्वंद्वी के आगे
अपनी अस्मिता खोए हो तुम ।
हे सत्य कहाँ छिपे हो तुम !
क्षेत्र सामाजिक हो या धार्मिक
आर्थिक हो या राजनीतिक ,
हर जगह झूठ का बोलबाला है ,
जो मुख में लाना चाहे तुमको
लगा उसके होंठों पर ताला है ,
क्यों पाखंडी झूठ के आगे
अपनी छवि धूमिल किए हो तुम
हे सत्य कहाँ छिपे हो तुम !
यदि आज भी तुम अपने
असली रूप में आ जाओ ,
अनेक हरिश्चंद्र और गांधी तुमको
अपने मन मंदिर में बसाएँगे
और तुम्हारा ही आश्रय लेकर
उस प्रतिद्वंद्वी को दूर भगाएँगे ,
हे सत्य ! कहीं खो न देना
इस परिवेश में अपनी पहचान तुम ।
हे सत्य कहाँ छिपे हो तुम !
डॉ रीता
आया नगर,नई दिल्ली- 47