हे शिक्षे !
हे शिक्षे,
तू भ्रष्ट हुई
बनकर बनिकों की मुँहबोली
वैभव की अभिप्राय हुई
रुपयों की थैली ।
सर्वसुलभ थी समाधान थी
दीन-हीन वंचित-विशेष
सबमें समान थी
अब महलों की मेहमान हुई
और नीलामी की बोली।
अक्षर-अक्षर गुनकर तेरे
भिक्षुक भी धनवान हुऐ
पिछवाड़े पैबन्द लगे भी
सभ्य हुऐ गुणवान हुऐ
…खंड हुऐ सब मूल्य
तू बस हंसी ठिठोली ।
हे शिक्षे…..
‘भुवनेश’