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22 Oct 2016 · 1 min read

हुस्न के शह्र में आ गए हो मियाँ

आ रहीं यूँ जो बेताब सी आँधियाँ
शर्तिया है निशाना मेरा आशियाँ

मैंने देखा है झुरमुट में इक साँप है
और हैं बेख़बर सारी मुर्गाबियाँ

मान लूँ क्या के अब दस्तो पा थक चुके
ग़ुम हुईं जो तेरी यार नादानियाँ

भूल जाओगे अब दीनो ईमान सब
हुस्न के शह्र में आ गए हो मियाँ

ज़ीनते ज़िन्दगानी है इतनी ही तो
तेरा करना मुआफ़ और मेरी ग़ल्तियाँ

बाकमाल ऐसी फ़ित्रत को क्या नाम दूँ
प्यार कुत्ते को इंसान को गालियाँ

यार ग़ाफ़िल ज़ुरूरी मुहब्बत है जूँ
क्या ज़ुरूरी हैं वैसे ही रुस्वाइयाँ?

-‘ग़ाफ़िल’

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