हमारे देश की देखो
विधा- गीतिका
छंद- विधाता
मापनी – 1222 1222 1222 1222
समान्त- अन, पदांत-की
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हमारे देश की देखो ,दशा अब आम जन जन की।
कहाँ है न्याय की धारा ,गयी अब सूख जल घनकी।
नहीं सम्मान अब बाकी ,बची है गंध मधुवन की।
मिली है हर दफा हमको,सदा आवाज़ ठन ठन की।
मिली तारीख पर तारीख छूटी आस हर मन की।
अदालत ने सुना दी आज फिर तारीख लंबन की।
गयी है टूट धीरज आज फिर इंसान जन मन की।
यहाँ हर साख पर बैठा है उल्लू आज उपवन की।
अटल मुरादाबादी