हमारा बचपन
***हमारा बचपन***
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ये उन दिनों की बात है
जब हम होने लगे थे समझदार
फिर भी घर वाले हमारे शैतानी दिमाग से
रहते थे पल-पल खबरदार।
बचपने का दिमाग
हर पल कीड़े कुलबुलाते
कुछ शैतानी हरक्कत को
पल- पल उकसाते
वैसे नटखटपने में बहुत मजा था
नुकसान का पता नहीं किन्तु नफा था
दोस्तों के साथ मिल
बागों से आम तोड़ लाना
किसी दुसरे के खेत से गन्ना चुराना
जामुन के पेड़ पर चढ कर इतराना
जामुन दिखाकर दोस्तों को चिढाना
सरारत तो थी फिर भी हम सभ्य थे
आज के जनरेशन जैसे नहीं हम असभ्य थे।
नित्य ही बड़ो का पाव छूते
तब हमारे पास न जिन्स थे न जूते
पटापटी की पैंट या पैजामा पहनते
उसी पर इतराते और उसी पे अकड़ते
घर का काम करते, मन लगाकर पढते
तब के दोस्त भी अजीब थे
सबके सब दिल के बहुत करीब थे
संग खेलते, संग खाते
एक दुजे पर जान लुटाते
फिर भी एक दुसरे से आगे निकलने की होड़ थी
तब प्रतिस्पर्धा भी बेजोड़ थी
आगे निकलने क़ो एक दुजे की टांग खिचना
गर रूठ जाये दोस्त गले लगाकर सीने से भीचना
तब के खेल भी निराले थे
कभी चोर पुलिस में चोर पे धौंस जमाना
कभी कंचे या गिल्ली डंडे पे हाथ आजमान
तब फुटबॉल का बुखार था
क्रिकेट नया था अतः हमारे लिए बेकार था
धिरे – धिरे फुटबॉल से दूर
हम भी क्रिकेट सिखाने और खेलने लगे
स्पीनर क्या फास्टर को भी झेलने लगे
समय पंख लगा कर उड़ा हम बड़े होगये
सामने परेशानियों के पहाड़ खड़े हो गये।
बचपन गई वो सारे दोस्त नाजाने क्या होगये
अपने – अपने जीवन की परेशानियों में खो गये
“सचिन” बचपन को याद कर हुक सी उठती है
कवि की आंखों से अविरल अश्रुधारा फुटती है।।
©®पं.संजीव शुक्ल “”सचिन”
2/9/2017