हमने मझधार में से ख़ुद ही निकलकर देखा
हमने मझधार में से ख़ुद ही निकलकर देखा
पाँव रखने की जगह को भी संभलकर देखा
किसने बदला है जहाँ ख़ुद ये बदलता अक्सर
फ़र्क़ कुछ भी न हुआ ख़ुद को बदलकर देखा
पार दीवार से आती थीं कराहें अक्सर
दुश्मनी हो ही गई जब भी उछलकर देखा
दी सलाहें थीं मुझे कर लो कभी नेकी भी
क्यों हसद लोग करें जब भी अमलकर देखा
सीधी-सादी सी नज़र उस पे पड़ी थी मेरी
उसने इल्ज़ाम लगाये कि मचलकर देखा
अब यक़ीं टूट गया सामने पकड़ा था उसे
बाग़बां कैसा के फूलों को कुचलकर देखा
यूँ तो रुस्वा भी किया उसने ज़माने में मुझे
कब जलाया है उसे ख़ुद ही तो जलकर देखा
क़त्ल के बाद भला कौन था मक़तल में वहाँ
जब मना उसने किया हमने भी चलकर देखा
उसने ‘आनन्द’ कहा जो भी किया वैसा फिर
ख़ैर अच्छा ही हुआ हमने भी ढ़लकर देखा
– डॉ आनन्द किशोर