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4 Jun 2020 · 1 min read

हथिनी की बेरहम हत्या

हवाएं रुक क्यों न गई, धड़कनें थम क्यों न गई
इंसानियत हुई शर्मसार, सुकून-ए-बहर क्यों न गई।

हैवानियत का वीभत्स चेहरा उभरा है फिर से
देख कातिल का तरीका, साजिशें सिहर क्यों न गई।

बद्दुआएं बर्बाद करती है, सुना है सयानो से
खामोशी दर्द की उसकी, बन कर कहर क्यों न गई।

जिंदा लाश बनकर, जिंदगी से लड़ता रहा वो
कोई मरहम क्यों न हुई, गम-ए-सहर क्यों न गई।

शर्म से जार जार है, हम विक्षिप्त बीमार है
घिनोनी करतूत से पहले, इंसानियत डर क्यों न गई।

जब से अनानास में पटाख़े रख हाथी को खिलाने
की खबर सुनी, मन विचलित था और कसमसाहट
थी कि रुकती ही न थी। क्या होता जा रहा है हमें,
विक्षिप्त मानसिकता के साथ हम निरीह प्रकृति
और उसके प्राणियों के साथ जो अमानुषिक
अत्याचार कर रहे हैं वो कब समाप्त होंगे, क्या
हमारी इंसानियत मर चुकी है।

गोविन्द मोदी – 8209507223

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