सृजक आत्ममंथन
सृजक आत्ममंथन
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जब से कलम उठाया मैंने
लक्ष्य एक ही साधा था,
मान प्रतिष्ठा मिले जगत में
आश यहीं बस बाँधा था।
तब से लेकर आज अभी तक
कलम नहीं रूकने पाया,
कटुसत्य जीवन का लिखकर
गीत कई मैने गाया।
कभी देश की दशा की वर्णित
कभी वीरह की बात कही,
अनुभव की नारी की पीड़ा
अबतक उसने जो है सही।
कहीं मान पा हुआ प्रफुल्लित
कभी वेदना से घायल,
कवि हृदय भी हुआ प्रेममय
खनकी जब उनकी पायल।
दुराचार व्यभिचार तनिक भी
कवि हृदय न सह पाता ,
दशा हाल प्रभाव जो दिखता
कलम वहीं लिखता जाता।
तिरस्कार या मान – प्रतिष्ठा
जीवन में सब ही मिलते हैं,
सत्य के पथ पे चलने वाले
पुष्प सा बन जग में खिलते हैं।।
——————–स्वरचित, स्वप्रमाणित
✍️पं.संजीव शुक्ल “सचिन”