सुनो ! हे राम ! मैं तुम्हारा परित्याग करती हूँ …. ( जनक-नंदनी सीता का उलाहना )
सुनो ! हे राम ! मैं तुम्हारा परित्याग करती हूँ …. ( जनक-नंदनी सीता का उलाहना )
सुनो ! हे राम !
मैं जनक-नंदनी सीता ,
पूछना चाहती हूँ तुमसे कुछ सवाल .
दर्द दिल में लिए ,
आँखों में अजस्र अश्रुधारा लिए ,
होंठों पर असंख्य आहें लिए चंद सवाल .
कहते हैं तुम्हें मर्यादा पुरुषोतम ,
तुम्हारी न्याय प्रियता और मानवता का ,
बड़ा नाम सुना था ,
मगर मेरे साथ अन्याय क्यों ?
यह है मेरा पहला सवाल .
दावा करते थे मुझे अपने प्रेम का ,
मुझे अपना जीवन मानते थे ,
मगर नहीं दिया अपना विश्वास ,
क्या यह प्रेम ,यह अनुराग मात्र प्रपंच था?
जिस एक वर्ष में तुम मेरे लिए ,
वियोग में मेरे तड़पते रहे ,
उसी एक वर्ष में मैने भी तो रावण -राज में
अपार कष्ट और संताप सहे.
वर्षों बाद मिले तो दुःख परस्पर बांटना चाहिए था ,
परन्तु ज़ख्मों पर मलहम लगाने के बजाये मुझसे
नज़रें क्यों फेर लीं?
मेरे चरित्र पर तुमने संदेह किया?
मैं जीती जगती मनुष्य थी ,ना की कोई वस्त्र ,
जिसे मैला हो गया समझकर तुमने परित्याग किया ,
तुमने स्त्री अस्मिता को क्या समझा ?
अब मैं सोचती हूँ , मैं मुरख थी ,
मैने क्यों दी तुम्हारेअग्नि -परीक्षा ?
जबकि मैं जानती हूँ ,की मैं बिलकुल,निष्पाप , निष्कलंक ,
निश्छल और गंगा सामान पवित्र थी ,
परीक्षा तो तुम्हें भी देनी चाहिए अपने पवित्रता की ,
तुमने क्यों नहीं दी कोई परीक्षा ?
तुमने एक तुच्छ ,कुंठित ,कुत्सित ,
संकीर्ण मानसिकता वाले धोबी को तो दण्डित नहीं किया ,
मगर एक महारानी का दर्ज़ा देकर भी ,
मेरी मर्यादा को खंडित किया ,
तुम्हारे राज्यमें क्या एक महारानी का ऐसा ही सम्मान होता है ?
तुम्हारे वंश को जन्म देने वाली कुलवधूको ,
अपनी जीवन संगनी ,पत्नी को धोखे से तुमने अपने
जीवन से क्यों निकला ?
वास्तव में तुम,ने मुझसे कभी प्रेम किया ही नहीं,
यदि तुम मुझसे प्रेम करते तो ,
जैसे मैने तुम्हारे साथ १४ वर्ष का वनवास प्रसन्नता से स्वीकार किया ,
तुम भी राज महल छोड़कर मेरे साथ वन-गमन ,
कर सकते थे ,
फिर तुमने ऐसा क्यों किया ?
तुम तो बस मुझे ही अब तक परीक्षा लेते रहे ,
स्वयं तो तुमने कभी अपने प्रेम की ,
अपनी पवित्रता /निष्ठावान होने की परीक्षा कोई दी नहीं.
तुम क्यों हमेशा मुझपर ही ऊँगली उठाते रहे?
माफ़ करना राम !
तुम निश्चय ही एक आदर्श पुत्र /भाई हो ,
मगर तुम एक आदर्श पति नहीं बन पाए ,
यहाँ तक के अपने ही वंश से किया युद्ध,
अपनी संतान को भी ना पहचाना ,
तुम तो एक आदर्श पिता भी ना बन पाए.
क्या तुम्हारे पास मेरे किसी भी सवाल का जवाब है ?
नहीं!!
तो बस ! अब मुझे अपने जीवन से मुक्ति दो ,
अब मैं सदा के लिए तुमसे विदा लेती हूँ.
नहीं जानते ना ! किसी के द्वारा परित्यक्त होने का दुःख ,संताप ,
क्या होता है.!
किस तरह स्वाभिमान आहत होता है !
तो अज मैं तुम्हें एहसास करवाती हूँ.
मैने जनक-नंदनी सीता तुम्हारा परित्याग करती हूँ .