ससुराली होली (हास्य)
#सादर_समीक्षार्थ
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ससुराली होली (हास्य या चिंतन)
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आजतक यही सुनता व देखता आया हूँ सबसे रंगभरी होली ससुराल की होती है……….. पर अफसोस अब तक यह सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं हो सका जबकि शादी के उन्नीसवें वसंत के हम साक्षी बन चुके हैं।
वो सालीयों का ईठलाना, थोड़ा सा शरमाना फिर भी रंग लगाना …………..सलहज का प्रेम रंग बरसाना, सालों के साथ की जानेवाली ससुराली मस्ती इन सबों से अछूता …………….सोचता हूँ जिन लोगो ने यह जीवन जीया होगा उनके मनोभाव उस वक्त कैसे रहे होंगे।
खैर हम मस्त हैं अपनी ही बस्ती में, आप मस्त रहो ससुराली मस्ती में।…. ……अपनी किस्मत की गाड़ी प्रेम – प्रीत, रंग – अबीर, पुवे – पकवान की पटरी को छोड़ तन्हाई भरी पटरी पर नाजाने कब से दौड़ रही है………..इस सफर के मध्य स्टेशन भी फरेब, धोखाधड़ी, रूसवाई , मतलपरस्ती वाले ही आते हैं।
आज तो पापी पेट के लिए घर द्वार , गांव नगर, हीत परीत, साथी संहाती सबों से दूर …………….एक अनजान शहर में जहाँ हर रिश्ता व्यवसायिक है व्यापार परक है, यहाँ तो गुलाल भी उन्हें लगाया जाता………….. जिनसे मतलब सिद्ध होते हों ……………स्वार्थ साधना ही यहाँ हर रिश्ते की मूल बिन्दु है। आज ऐसे दुनिया का अंग बनना पड़ा।………….सोचकर खुद पे भरोसा तो नहीं होता किन्तु हकीकत यही है……
शायद इसी का नाम जीवन है।
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✍✍पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण
बिहार