Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
5 Nov 2019 · 6 min read

समीक्षा

‘नदी जो गीत गाती है’- एक मूल्यांकन
************************************

ग्राम्यता और नागर भावबोध की गहरी अनुभूतियाँ

गीत-नवगीत के सृजन में प्रतिबद्धता के साथ तत्पर साम्प्रतिक सर्जकों में शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ का नाम बहुचर्चित है. वे अपने समय और समाज को मानसिक चेतना के स्तर पर,जीते, देखते और भोगते हुए गहरी आनुभूतिक धारणाओं से सम्पन्न और सक्षम रचनाकार हैं. किसी फोटोग्राफर की तरह वे स्थितियों एवं सन्दर्भों का मात्र ‘स्नैप’ नहीं लेते बल्कि अपनी तीसरी आँख से उन स्थितियों-सन्दर्भों के अचाक्षुष कार्य-कारण संबंधो को भी बखूबी देख लेते हैं.ऐसी दृश्यता, सभी गीत सर्जकों में समान रूप से नहीं पाई जाती. प्राय: ग्राम्यबोध संपन्न रचनाकार, अपने परिवेश की दुरव्यस्थाओं के सहज मुक्तभोगी होने के कारण, इस दृष्टि से सायुज्य होते हैं. नगर या महानगर के शौकिया लोग, जब किताबों में पढ़ी,पराई अनुभूति की बात करते हैं,तो प्रयत्न साध्य होते हुए भी वह अन्यथा सिद्ध हो जाती है ‘जाके पैर न फटी बिवाई,सो क्या जाने पीर पराई.’
‘सहयोगीजी’ ने अपने गाँव ‘सुरजन छपरा’ को अपनी प्रकृति के स्तर पर भोग है,अत: उनके पास स्वानुभूतिपरक वह ‘संवेदना’ है जो उनके डी.एन.ए. में स्म गई है. यही संवेदना,व्यष्टिगत होते हुए,समष्टिगत हो जाती है,व्यापक हो जाती है और यह व्यापकता,साहित्यकार और उसके सृजन को असीम बना देती है.
उनके गीतों को पढ़ते हुए मुझे पदे-पदे आभास होता रहा है कि,’यह तो ‘सहयोगीजी’ ने, मेरी अपनी अनुभूति को, स्वकीय एकान्तिक सहजता से कह दिया है.इसी बात को ‘रामचरितमानस’ के ‘बालकाण्ड’ की भूमिका के अंतर्गत बाबा तुलसीदास ने ‘स्वान्तःसुखाय’ की अर्थ व्यंजना में व्यक्त किया है. वास्तव में कवि (शायर) का हृदय ‘जगसंवेदी’ होता है- ‘बेताबियाँ समेटकर सारे जहान से,जब कुछ न बन सका तो मेरा दिल बना दिया.’
ऐसा संवेदनशील हृदय और मर्मस्पर्शी दृश्यता ही ‘कवि-प्रतिभा’ कही गई है,जो सर्व सुलभ नहीं होती. ‘सहयोगीजी’ के गीतों में उनका प्रगाढ़ स्वानुभूतिपरक कथन,भावानुरूप भाषिक औदात्य के साथ विद्यमान है. उन्हें समग्रत:उदाहृत करने की अपेक्षा कतिपय गीत-पंक्तियों में कह देना ज्यादा उपयुक्त लगेगा-
न्यायालय का न्याय झुका है
फाँसी चढ़ी सजा
*******
काशी कितनी बदल गई है
बदल गया है ‘अस्सी घाट’
‘सारनाथ’ भी ढूँढ़ रहा है
बोधगया का रूपक ठाट
*******
‘पाँवलगी’ तक भूल गये हैं
‘नकतोड़े’ छोटे
मेलजोल का भाईचारा
बोले कटु स्वर में
*******
‘पलिहर’ की बोवाई है
डूबी करजा में
‘खटनी’ की शिक्षा है
पहली ही दरजा में
******
हम रोज कुआँ खोदें
हम रोज पियें पानी
हे ! जनपथ के राजा
हे ! जनपथ की रानी
******
सजा पंडाल खुशियों का
कुरसियाँ थीं पड़ीं अनमन
सुना था आ रहा जन-धन
समय का दौर अच्छा दिन
******
कमाती और खाती है
मजूरी पेट होती है
******
आरोपों की लीपापोती
अनहोनी का होना
मोती को भी चाँदी कहना
चाँदी को भी सोना
संसद की हर बातचीत का
तर्क सटीक नहीं है
******
लेतीं अंतिम साँस हवाएँ
नदियाँ हैं नाराज
******
कहाँ बनाये बया घोंसला
कहाँ छिपाए चोंच
******
जिन्हें नहीं हम जान सके थे
उनको जान गये
अरे ! ‘फेसबुक’
विश्वग्राम को कुछ पहचान गये
******
आभासी यह दुनिया अनवधि
भूल-भुलैया है
‘जुकरवर्ग’ की गढ़ी हुई यह
सोनचिरैया है
******
इस प्रकार ‘ग्राम्यता’ और ‘नागर भावबोध’ दोनों की गहरी अनुभूति और उनका युगानुरूप शैल्पिक अभिव्यक्ति के साथ,भोगा हुआ अतीत और भोगा जाता हुआ यह वर्तमान,अपने विभिन्न आयामों-संदर्भों के साथ गीतों में विद्यमान है.
‘दलदली’ सियासत की धृष्टता,अभद्रता,ओढ़ी हुई शालीनता,चमकीले विकास की दिशा-हीनता,विद्रूपता,हमारे रिश्ते-नातों की बिरसता,शहराते गाँवों की बेचारगी,विज्ञान और तकनीक की अतिवादिता के चलते मानुषी गुमशुदगी का अवसादी चित्रण आदि,‘सहयोगीजी’ के गीतों के संदर्भ बने हैं.
तात्पर्य यह कि अद्यतनीय समग्रता-परिवेश पर व्यापक दृष्टि गई है गीतकार की. इसी व्यापकता में कुछ पुलक भरे प्राकृतिक गीत भी हैं,जो हमें घन अवसाद से उबारते हैं. एक गीत उल्लेखनीय है-
लगे है सावन आया
चली घटा,घट लिए माथ पर
आज पिया के देश
‘चंद्रकला’ से बतियाता है
‘घेवर’ का बाजार
चली सावनी तीज मनाने
साजन का त्योहार
******
सावन क महीना भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक और पारंपरिक निष्ठा का निदर्शन है.जाने कितनों की कितनी इच्छाओं,कामनाओं और ‘सनेसों’ की सहज अभिव्यंजना इसकी फुहार में समाई है. ‘बरखा’ का रंगीला ‘पाहुना’ है ‘सावन.’ गीतकार ने कहा है-
सुहागिन रानी ‘पिया’ नरेश
मगन हैं ‘गौरी’ और ‘गणेश’
लगे है ‘सावन’ आया
******
गीतकार डा.शुक्ल का भी प्रिय है ‘सावन.’ उनका पावस गीत भी ‘सहयोगीजी’ के गीत का हमसफर है-
कंधों पर सावनी ‘अकास’ लिए
आज कहीं ये बादल बरसेंगे
बरसेंगे खेतों में ‘धान-पान’ बरसेंगे
बंजर में हरियाली की उड़ान बरसेंगे
हाथों के ‘मेंहदी’ में,पाँव के ‘महावर’ में
कोमल इच्छाओं के आसमान बरसेंगे
******
‘सहयोगीजी’ का एक ‘सावन’ गीत और है ‘सावन बीता जाए’-
आसमान कुछ ठगा-ठगा-सा
बादल गाँव न आये
सावन बीता जाए
औसत से भी कम है बारिश
‘घाघ’ बहुत घबराए
******
यह सूखा सावन,कमतर बारिश वाला सावन,हमारे हिंदी साहित्य के ‘घाघ’ और ‘भड्डर’ जैसे कृषि संस्कृति के संवाहक लोक कवियों को ‘घबड़वा’ तो देता है किन्तु निराश नहीं होने देता,प्रकारान्तर से.
हिंदी का मध्यकालीन साहित्य,अपने ‘लोकरस’ से भारतीय समाज को नीरस परिस्थितियों से भी,अपने अमूल्य जीवन मूल्यों के सहारे मरुथल होने से बचाता रहता है. ‘घबराहट’ चिन्तन के नये द्वार खोलती है,निराश नहीं करती.
हमारे युग का सबसे त्रासद हादसा है ‘गाँवों का शहराना.’ इस अकेले हादसे ने गाँवों की ग्राम्यता,अपनत्व की रीति-नीति,पारंपरिक रिश्ते-नातों में बाजारू व्यवहार,गाँवों का शहर की ओर पलायन,सामाजिकता की उपेक्षा,आत्मकेंद्रिकता,विज्ञान और टेक्नोलोजी की अतिवादिता के चलते क्षरित होती सांस्कृतिकपरंपरा आदि अनेक हादसों को जन्म दिया है.
आजीविका की खोज में,गाँव से बाहर गई,नई पीढ़ी,शहर की उजरौटी में खोती जा रही है. गीतकार ‘सहयोगीजी’ ने पलायन की शिकार नई पीढ़ी द्वारा,गाँव के बूढ़े बुजुर्गों को अनाथ किये जाने पर,गहन मानुषी चिंता व्यक्त की है-
पता नहीं,
क्या हुआ कि अशरफ
घर जाने का नाम न लेता
******
उपर्युक्त तीन पंक्तियों की प्रतिक्रिया में,गीतकार का मोह-ममता वाला मन कह उठता है-
चलो मन !
अब चलें ‘बलिया’
बहुत दिन रह लिए ‘मेरठ’
यद्यपि अपनी जन्मभूमि ‘बलिया’ के दुःख उसे याद हैं,तथापि वहाँ की निश्छल लोकसंवेदना’ उसे बुलाती है. नये ‘सँवरे उजालों’ से खेलते शहर की जहरी साँस लेती सडकों का प्रदूषण,उसके हादसे का भय,छलिया परिवेश आदि उसे अनमना कर देते हैं,शहरी व्यामोह के प्रति.
इधर नई प्रगति के चमकीले तथा दिशाहीन विकास ने गाँवों को ‘चितकबरा’ बना दिया है. वे न शहर बन सके,न गाँव रह गये.अचीन्हें हो गये हैं.ऐसे में ‘सहयोगीजी’ गाँव या शहर,कहाँ रहें ? एक अप्रार्थित उलझन में हैं और यह आजकल के परिवेश में एक अवांछित प्रश्न है,जिसका निराकरण कहीं दूर तक नहीं दिखाई देता.
एक नया और बड़ा संकट उपस्थित हो गया है, दुविधा का संकट.डा. शुक्लजी ने अपने एक दोहे में इस दुविधा को यों व्यक्त किया है-
पछुवा के मारे हुए,खोज रहे हम ठाँव
अस्वीकृत हैं शहर से,बिचुर गया है गाँव
गीतकार ‘सहयोगीजी’ का एक और गीत भी ध्यातव्य है. चाँदी के शहर में,गंगाजली प्यास लिए,रेगिस्तान में भटकते हिरन की गति वाले ‘परदेसी’ का जब छठे-छमासे गाँव से,स्वकीया कोई खत मिलता है,तब उसकी मन:स्थिति कैसी हो जाती है,इसे शब्दायित करते हुए वे लिखते हैं-
जो लिखा था पत्र तूने
आज से दो साल पहले
कल मिला है
मृगमरीचिका के शहर में
जो पियासा मरु पड़ा था
जल मिला है
अपने प्रान्त-परिवेश से दूर हुए हम,हम सभी ‘परदेसियों’ ने इस त्रासद मनोविज्ञान को मर्मस्पर्शी रूप में भोगा है. इस भोगे हुए अवसाद की स्थिति से ऊबकर,कभी-कभी हमारा मन इससे बाहर निकलकर ‘सर्वतो भद्र कामना’ वाला हो जाता है. ऐसी स्थिति में ही ‘सहयोगीजी’ ने यह गीत लिखा होगा-
नमस्कार जी ! कैसे हो तुम
दुआ-सलाम लिखें
******
इतिहासों के वृंदावन में
राधेश्याम लिखें
******
नई सभ्यता की पृथ्वी पर
अक्षरधाम लिखें
******
मानवता के पृष्ठ-पृष्ठ पर
गीत ललाम लिखें
******
प्रस्तुत गीत-नवगीत संग्रह में अधुनातन जीवन और जगत के प्राय: सभी संदर्भों पर ‘सहयोगीजी’ का संवेदी मन ‘विरमा’ है. उन्हें भोगा है,आस्वादा है,फिर भावकोश में उन्हें उपचित करके मुखरित हुआ है.
गीतकार श्री शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’जी ने ग्लोबल दुनिया की,विश्वग्राम की भी बात की है,किन्तु ‘शीतयुद्ध’ के सियासी छलछद्म के चलते यह संदर्भ बिडंबित हो गया है. सारा विश्व अशांत और ‘अहं’ के दंभ में प्रपीड़ित है और ऐसी स्थिति में क्या कहा जाए ?
एक बात और,और वह यह कि गीतकार भोजपुरी क्षेत्र से हैं तथा अवधीभाषी परिवेश के प्रतिवेशी हैं. अत: इन दोनों के ठेठ गँवई शब्दों के यथोचित प्रयोगों ने गीतों को गजब की संप्रेषणशक्ति दी है और तत्परिवेशीय सहृदय पाठकों के संवेदी मन को ‘स्वयं’ के बहुत ‘नियरे’ पहुँचा दिया है. हाँ ! यह बात अवश्य है कि इतर प्रांत-परिवेश के भावकों को थोड़ा-सा असहज कर देने की संभावना भी बना दी है किन्तु भाव को समझने में किसी को किसी विकलता का अनुभव नहीं होना चाहिए.
यह गीत-नवगीत संग्रह ‘नदी जो गीत गाती है’ ‘सहयोगीजी’ के ‘प्रौढ़ गीत सर्जक’ होने की ‘साखी’ भरता है. इससे पूर्व उनके पाँच काव्य संग्रह,एक गजल संग्रह,दो दुमदार दोहे संग्रह,एक कुंडलिया संग्रह,तीन गीत संग्रह और चार नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.एक पुस्तक उनकी पुस्तकों की समीक्षाओं पर भी संपादित ही चुकी है. मैं उन्हें साधुवाद और स्नेहिल आशीष देता हूं-‘शुभास्ते पन्थानः सन्तु.’

३० मार्च २०१८ डा. राधेश्याम शुक्ल
३९२,एम.जी,ए.
हिसार-१२५००१ (हरियाणा)
दूरभाष- ९४६६६४०१०६

Language: Hindi
256 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
हमने तुमको दिल दिया...
हमने तुमको दिल दिया...
डॉ.सीमा अग्रवाल
* माथा खराब है *
* माथा खराब है *
DR ARUN KUMAR SHASTRI
मेरी जिंदगी सजा दे
मेरी जिंदगी सजा दे
Basant Bhagawan Roy
बीड़ी की बास
बीड़ी की बास
नील पदम् Deepak Kumar Srivastava (दीपक )(Neel Padam)
ग़ज़ल/नज़्म - इश्क के रणक्षेत्र में बस उतरे वो ही वीर
ग़ज़ल/नज़्म - इश्क के रणक्षेत्र में बस उतरे वो ही वीर
अनिल कुमार
कविता: सपना
कविता: सपना
Rajesh Kumar Arjun
🧟☠️अमावस की रात☠️🧟
🧟☠️अमावस की रात☠️🧟
SPK Sachin Lodhi
2464.पूर्णिका
2464.पूर्णिका
Dr.Khedu Bharti
शहर में बिखरी है सनसनी सी ,
शहर में बिखरी है सनसनी सी ,
Manju sagar
सद्विचार
सद्विचार
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
है तो है
है तो है
अभिषेक पाण्डेय 'अभि ’
नव वर्ष
नव वर्ष
Satish Srijan
#शेर-
#शेर-
*Author प्रणय प्रभात*
आदिम परंपराएं
आदिम परंपराएं
Shekhar Chandra Mitra
जो लिखा है
जो लिखा है
Dr fauzia Naseem shad
"गुलजार"
Dr. Kishan tandon kranti
सम्राट कृष्णदेव राय
सम्राट कृष्णदेव राय
Ajay Shekhavat
💐प्रेम कौतुक-434💐
💐प्रेम कौतुक-434💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
कोशिश कम न थी मुझे गिराने की,
कोशिश कम न थी मुझे गिराने की,
Vindhya Prakash Mishra
शक्तिहीनों का कोई संगठन नहीं होता।
शक्तिहीनों का कोई संगठन नहीं होता।
Sanjay ' शून्य'
आ ठहर विश्राम कर ले।
आ ठहर विश्राम कर ले।
सरोज यादव
अगनित अभिलाषा
अगनित अभिलाषा
Dr. Meenakshi Sharma
छोटी कहानी -
छोटी कहानी - "पानी और आसमान"
Dr Tabassum Jahan
अब कहां वो प्यार की रानाइयां।
अब कहां वो प्यार की रानाइयां।
सत्य कुमार प्रेमी
कान्हा घनाक्षरी
कान्हा घनाक्षरी
Suryakant Dwivedi
प्लास्टिक बंदी
प्लास्टिक बंदी
Dr. Pradeep Kumar Sharma
दिखा तू अपना जलवा
दिखा तू अपना जलवा
gurudeenverma198
February 14th – a Black Day etched in our collective memory,
February 14th – a Black Day etched in our collective memory,
पूर्वार्थ
*पहिए हैं हम दो प्रिये ,चलते अपनी चाल (कुंडलिया)*
*पहिए हैं हम दो प्रिये ,चलते अपनी चाल (कुंडलिया)*
Ravi Prakash
मोबाईल नहीं
मोबाईल नहीं
Harish Chandra Pande
Loading...