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25 Apr 2020 · 1 min read

सनोबर के तले

सनोबर के तले बैठा मुसाफ़िर सोचता रहता था
सफ़र की दूरी कम न हो दुआएँ माँगता रहता था।

रतजगी उसकी आँखों की नींदे नींद माँगती थी
दिन को भी लेकिन वो दीवाना जागता रहता था।

कुछ तो शायद उसके अंदर टूटा था उस रात को
तब से टूटे आईनों के शीशे वो जोड़ता रहता था।

उसको शायद हो चुकी थी चुप रहने से मुहब्बत
जब देखो आँखें मूंदें ख़ामोशी ओढ़ता रहता था।

पता था उसे आखिर में सबको छोड़के जाना था
फ़ुर्सत जब कभी मिलती क़ब्रे झाँकता रहता था।

जॉनी अहमद “क़ैस”

2 Likes · 2 Comments · 194 Views
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