सत्य के साहूकार
सत्य के साहूकार………….
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नाम वो सत्य का बेचें
खुला ब्यापार करते है
उचित जो मूल्य पाजाये
कहा इनकार करते है
यही तो काम है इनका
यहीं हर बार करते है
छोड़ते “माँ” तक को ना ये
दाग दामन में भरते है।
दगा अपनो से करते है।
जूनू सर पे है बस इतना
बड़ा बनना है अब इनको
चुकानी जो पड़े किम्मत
नहीं परवाह है इनको
बेचकर साख अपनो की
स्वप्न साकार करते है
छोड़ते “माँ” तक को ना ये
दाग दामन में भरते है।
दगा अपनो से करते हैं।
यहीं फिदरत है बस इनकी
नहीं अपना कोई इनका
रिश्ते हैं वहीं अच्छे
जिससे लाभ हो इनका
रिश्ता हो कोई चाहे
कहा सम्मान करते है
छोड़ते “माँ” तक को ना ये
दाग दामन में भरते हैं।
दगा अपनो से करते है।
नहीं कोई धर्म है इनका
नहीं इमान के सच्चे
अश्क मासूम सा दिखता
बात से लगते ये कच्चे
लाभ मासूमियत का ले
सभी को हीं ये छलते हैं
छोड़ते “माँ” तक को ना ये
दाग दामन में भरते हैं।
दगा अपनो से करते हैं।
दगा करके भी ये हर पल
स्व दामन साफ रखते है
जूर्म करके भी हर दिन ये
स्वच्छ और साफ लगते है
महारथ है इन्हें हासिल
साफ हर काम करते हैं
छोड़ते “माँ” तक को ना ये
दाग दामन में भरते हैं।
दगा अपनो से करते हैं।।
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©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”