सत्ता का सुख
सत्ता+सुख
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सत्ता सुख के मद् में देखो , बने हैं सारे अंधे,
भूल गये इनको भी जाना, चार जनों के कंधे।
यह सत्ता ना सगी किसी की और कभी ना होगी,
मौका जिसको मिले लूट लें, भोगी हो या जोगी।
अपने को ही जग का मालिक अब ये सोंच रहे है,
इसी सोच से जनमानस को, शायद नोच रहे है।
नोच खसोट की बात न पूछो, नित्य ही बढता जाता,
सेवक बड़ा हो जितना जैसे, उतना ही वह खाता।
पहले कहते सेवक है हम, राष्ट्र में एक एक जन का,
जीत गये एकबार करें फिर, काम सब अपने मन का।
ना इनका कोई जात नहीं, कोई धर्म है दिखता भाई,
जात धर्म का फिर भी हर दिन, खोद रहे है खाई।
भारत की सारी जनता, इन्हें लगती है बस भोली,
उचित मूल्य गर पा जाये, लग जाये सबकी बोली।
कुर्सी के खातिर डालें ये, धर्म और जात का चारा,
स्वार्थपरता बना हुआ है, जन – जन का यहाँ कारा।
सत्ता सुख के खातिर यें, करते हैं सत्य का सौदा,
नाजाने किस बेईमान ने, बोया विषवेल का पौधा।
रोज बदलते दल ये ऐसे, जैसे कोई वस्त्र बदलता,
खुली आंख करते बेईमानी, फिर भी इनको फलता।
कई दलों के दलदल में देखो मेरा देश धसा है,
नागपाश में विषधर के, जैसे कोई जान कसा है।
पक्ष भला विपक्ष भला सबके सब कौड़ी -पाई,
ऐसा लगता संग में बैठे चोर चोर मौसेरे भाई।
शिक्षा का यहाँ हाल बुरा, भोजन पर जोर है सारा,
इतना कुछ सहने पर भी, नहीं चढता अपना पारा
राष्ट्र खड़ा किस राह कहाँ है, हम सबको अब जाना,
ऐसा लगता देश का जैसे, राजा अंधा काना
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”