‘ सच्चाई गाँव की’
यही है सच्चाई मेरे गाँव की मानो,
यही है सच्चाई मेरे गाँव की!
बाहर-बाहर, भाई-भाई,
अंदर-अंदर, कैंची लगाई!
रेवड़ियाँ – सी बाँट रहे हैं,
अपने-अपने छाँट रहे हैं!
चिंता है न कोई टकराव की!
जाति-पाँति मतभेद यहाँ है,
ऊँच-नीच का भेद यहाँ है!
दुविधा ताबड़तोड़ लगी है,
इक – दूजे से होड़ लगी है!
चिंता नहीं है किसी घाव की!
गाँव-गाँव हर चौपालों पर,
गली-गली और चौबारों पर!
बच्चों में घृणा बोयी जाती,
हम-ऊँचे ये नीची जाति!
यही है कहानी हर साव की!
मानवता का नाम नहीं है,
समता रूपी काम नहीं है!
वर्ग-भेद सारे जकड़ रहे हैं,
अनपढ़ ज़्यादा अकड़ रहे हैं!
कैसे हो संभावना सद्भाव की!
होली हो या फिर हो दीवाली,
सामाजिक असमानता फैली,
पहले जैसा भाव नहीं है,
गाँधी-स्वप्न-सा गाँव नहीं है!
वृत्ति बढ़ रही है दुर्भाव की!
तरह-तरह की जंग यहाँ है,
उच्च-किसम दबंग यहाँ हैं!
अपनी बात केवल मनवाते
बेशक अत्याचार हैं ढाते!
दशा है दहशती समाज की!
दिन भर अपना स्वेद बहाते,
मदिरा पीकर शोर मचाते!
मदमय होकर झूम रहे हैं,
अहंकार में डूब रहे हैं!
हानि उठाते तन-धन माल की!
पढ़े-लिखों पर रोब जमाते,
आदर और सम्मान गँवाते!
खिचड़ी अपनी पका रहे हैं,
व्यर्थ ही जीवन धका रहे हैं!
है स्थिति बस बनी तनाव की!
शिक्षा पर कोई ज़ोर न देते,
जाति-पाँति का शोर मचाते!
अनपढ़, ज़ाहिल और गँवार,
बच्चे, बूढ़े व ‘मयंक’ जवान!
जाति है कीड़ा स्वभाव की!
रचयिता : श्री के.आर.परमाल ‘मयंक’