सखियों की होली
सखियों की होली
पिछले बरस जब मैने खेली होली ।
ससुराल चली गई मेरी वो सखी सहेली ।
रंग भर भर मारी थी जब मेने पिचकारी ।
सब मिलकर वो करती मुझ संग हम जोली ।
भाई भोजी सब संग खेले मेरे होली ।
सखियों की रह रह याद आये मधुर बोली ।
संग साजन के खेल रही होंगी वो भी होली ।
करती होंगी ससुराल में वो भी हँसी ठिठौली ।
साजन ने उनके रंगों भर मारी होगी
पिचकारी।
तन पर हो गयी होंगी धानी चुनरियां
उनकी पीली।
चुपके से साजन बोले होंगे आओ
गौरी पास मेरे।
सुन लाज शर्म से हो गयी होंगी वो
भी काली पीली।
सांस ससुर की बेटी बन ससुराल में
मनाई होंगी होली।
सबका आदर रख कर भर ली होंगी
खुशियो की झोली।
यादों में रखती होंगी बाबूल के घर की होली।
सोच चुप हो जाती होंगी जाना है एक दिन,
सबको ससुराल बैठ कहार की डोली।
रंगों के त्यौहार में भूल जाती होंगी
सब कड़वी बोली
आपस मे मिलजुकर मना लेती होंगी
रंगों होली
बच्चों बूढ़ो संग खेली होंगी होली
याद अगर जब आयी होगी मेरी
चुपके से घूँघट अंदर कर ली होंगी
आँखे गीली।
गायत्री सोनु जैन मन्दसौर