संस्मरण
यादें खट्टी मीठी
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✍️प्रथम यात्रा घर से ससुराल तक✍️
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एक ऐसा अनुभव एक ऐसी याद जो जेहन में आते ही स्वतः हमें खुद पे हँसने को मजबूर कर देती है।
बात तब की है जब मेरी शादी को तीन वर्ष बीत गये किन्तु प्रा.सेक्टर में नौकरी की बिवसता अवकाश की कमी के कारण मैं एक बार भी ससुराल नहीं जा सका।
ऐसा नहीं है कि इन तीन वर्षों में मुझे छुट्टी न मिली लेकिन हमारे यहाँ की तथाकथित लोक नियम, प्रथा, रीतिरिवाज (नवरतन) जिसमें पहली बार ससुराल जाने पर नव दिन व नव रात ससुराल में रहना अनिवार्य था के कारण मै तीन वर्षों तक अपने ससुराल जा न सका।
खैर जब मेरे ससुराल वाले ने मेरे मंतव्य को जानने के बाद कि मैं इतने दिनों उनके यहाँ क्यों न आया मुझे आश्वासन दिया कि आप एक बार आईये और स्वेच्छानुसार जितने दिन संभव हो रहे या एक ही दिन रह कर चलें जायें कोई बंधन नही।
यह आश्वासन पाकर मैं ससुराल जाने को उद्दत हुआ सबके लिए कुछ न कुछ उपहार खरीदे और पैदल ही अपने गाँव से ससुराल के लिए चल पड़ा।
यहाँ तक सबकुछ सहज था समस्या तो अब प्रारंभ हुई । जिस गाँव मेरी शादी हुई है वहाँ मैं शादी से पहले एक बार भी नहीं गया था केवल व केवल एकबार बस शादी करने ही गया वह भी रात्रि में ,एक विडंबना और देखिए तब मुझे दिशा भ्रम हो गया था रास्ते मुझे याद नहीं थे और उस भरी दुपहरी में एक जन भी राह में न मिला जिससे मैं सही रास्ता पुछ सकूं, परिणाम मैं चार बार गलत रास्तों का वरण कर एक से दो कि.मी. आगे जा जाकर पुनः उसी चौराहे पर वापस हुआ तब कही जाकर एक अदद इंसान मिला जिसने उस गाँव जाने का सही मार्ग मुझे सुझाया।
जैसे तैसे बारह कि.मी. का वह मार्ग मात्र पाँच घंटे में पूर्ण कर मैं उस गाँव के करीब पहुंचा हद तो तब हो गई जब उस गाँव के बाहर हमारे ससुर जी मिलें मैनें उन्हें ससम्मान प्रणाम किया शायद तब इस आश में कि यहाँ से ससुर जी मुझे अपने साथ घर तक ले चलेंगे किन्तु……..
यहाँ भी डूबते को तिनके का सहारा नसीब न हो सका उन्होंने हाल समाचार जानने के बाद मुझसे जो शब्द कहें सुन कर मैं पुनः आसमान से गीरा और खजुर पर अटके जैसा महसूस करने लगा।
दामाद जी आप घर चलिए मिथलेश घर पे हीं हैं। मिथलेश हमारे साले साहब का नाम है..
दोस्तों मैं समझ न पा रहा था कि उनसे कैसे कहूँ… ससुर जी मैं तो रास्ता ही भूल गया हूँ आपके घर जाऊँ तो जाऊँ कैसे ……पर कह न सका बस मन मारकर मन ही मन उनके आतिथ्य को कोसता हुआ गाँव में दाखिल हुआ बड़े ही मशक्कत के बाद ससुर जी का वह तथाकथित घर मिला जो मेरा ससुराल था , वह भी पहचान सका तो कारण हमारे श्रीमती जी की वो साड़ी जो मैं बड़े ही अरमानों से खरीद कर लाया था वही साड़ी धो कर सुखाने वास्ते बाहर टंगा हुआ था…..आखिरकार सुबह का भूला शाम को ससुराल पहुच ही गया।
….??
✍️पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’