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11 May 2017 · 2 min read

संस्मरण :जंगल का प्रसाद

प्रसाद, कहीं भी बँट रहा हो—कितनी भी भीड़ हो, कहीं भी,कैसे भी—हमारे हाथ, भाव ;हमारे कदम रुक नहीं पाते;हम पूरी कोशिश करते हैं उस अल्प भोग पाने के लिए ।
कयोंकि वह अल्प पूर्ण की अनूभूति प्रदान करता है;उदात्त ,अनूठा और अभिव्यक्त न किया जा सके ऐसा अनुभव ।
ऐसे और भी कई अनुभव है जिन्हें भूलना कठिन होता है।स्वाद ही ऐसे होते हैं कि वह घटना “जीवन भर के लिए छाप” छोड़ जाती है।
एक स्मरण ऐसा ही कुछ है।मैं शुरू से अल्लहड़ स्वभाव का रहा हूँ ।मेरे मित्र भी अक्सर कुछ इसी मिजाज के होते हैं ।
बात गर्मी के मौसम की है।तपती दोपहर; निकल पड़े जंगल की सैर को,दोनों।रास्ते भर पेड़ों के एकाकी और शांत जीवन को करीब से देखा ।मुझे पता नहीं क्यों जंगल बुलाते रहते हैं! रास्ते में मेरे परिचित वनवासी चेला का घर पड़ा,रोक न पाया अपने आपको ।प्यास भी बहुत लगी थी।
चेला तो नहीं मिला परंतु उसका पिता -जैसे जंगल के पेड़ -पौधे, चिड़िया नदियाँ, वह भी स्वभावतः ऐसा ही था!आधी प्यास तो उसके निश्छल, सहज और सरल व्यक्तित्व को देखकर बुझ गई।दौड़कर चला आया!आसन बिछाया ,बोला गुरुजी, चाय बनबाता हूँ।मैंने तुरंत रोका ,नहीं नहीं ।अरे गुरुजी भूल ही गया, जल लाता हुँ(भाव-विभोर जो हो गया था,अहोभाग्य समझ रहा था,जबकि मै तथा मेरे मित्र स्वयं को धन्य समझ रहे थे जामुन वृक्ष के नीचे जैसे वैकुंठ मिल गया हो—,जब उसने कुएँ का शीतल जल पिलाया तो हम दो-दो लोटे बिना सांस लिए पी गए।नींबू का अमृत तुल्य शरबत (अभी भी जीभ में स्वाद आ जाता है!)पीकर परमानुभूति हुई जैसे किसी साधु ने कल्पतरु से टपकाकर प्रसाद दिया हो।यह हमारे जीवन की अविस्मरणीय अनूभूति है।

मुकेश कुमार बड़गैयाँ”कृष्णधर द्विवेदी ukesh.badgaiyan30@gmail. Com

Language: Hindi
348 Views
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