लोक कविता- संगी-साथी मजा लेत हैं
संगी-साथी मजा लेत हैं,
बूढ़ो मुंडा मोहे केत हैं।
कभी झुरियां चाँद बता के,
मेरो हर कुई मजा लेत हैं।।
छोटो होतो माँ है चिल्लातो,
इते उते की मैं उरझातो।
घरवारी भीतर तक है जाने,
बाहे अब मैं का समझातो।।
जींस पेंट अब पहर ने पा रओ,
जैसे तैसे तोंद लुका रओ।
टाई बेल्ट औऱ बार रंगा के,
मैं तो अपनी उमर लुका रओ।।
बड़ों मोढ़ा मोहे चिबला रओ,
मेरी बारी पे लाग लगा रओ।
पकी पकाई के चक्कर में,
गड्ढा खोद मोहे. कब्र बता रओ।।
मोडी़ मोरी भई सयानी,
बिना कहे कह गई कहानी।
कढ़ही जा रई उमर बिआओ की,
जई सोच अब उडी़ जवानी।।
एक मां ही सच्ची झूठो जग सारो,
पप्पू समझके, मोरी नज़र उतारो।
सब जग रूठे मां न रूठे,
मां समझे मोहे आज भी वारो।।
✍?अरविंद राजपूत ‘कल्प’