श्रृंगार – वीर — अपने अपने रूप
(१)- श्रृंगार
श्रृंगार था जिसको भाया,सज धज कर वह तो आया।
संयोग में था हर्षा या,विरह को सह नहीं पाया।
रति प्रेम बड़ा ही अनूप,सबके अपने अपने रूप।।
(२)- वीर
उठती फड़क भुजाएं, जब वीर को कोई सुनाएं।
रण कौशल हमें सिखाएं,हम विजय युद्ध में पाएं।
करे उत्साह का संचार, वीरो को बहुत ही भाया।।
**शेष रसो का सृजन जारी है,शीघ्र प्रेषित किए जाएंगे**
राजेश व्यास अनुनय