शिक़वाए ग़ुस्सा
शिक़वाए गुस्सा
शिक़वा अपनों से होती है, परायों से नहीं
गुस्सा ख़ून के रिश्तों से होती हे , गैरों से नहीं |
उड़ादे गुस्से को हवा में फूँक कर,
क्यों दे तकलीफ , अपनी ज़मीर पर |
कियूं करे कोई अपनी ज़मीर गंदी
उस शक्श के लिए जिस की चाहत नहीं |
धो डाल सारे , शिकवे शिकायत
भुलादे गैरों के सारे रिश्ते
और भर खुशियां , अपनी ज़िंदगी में |
मैंने पहले भी अर्ज़ किया था ,
गुज़रें हैं हम , हर मकानं से ,
मिले, बिछड़े, शिकवे, शिकायत के हर ज़नून से |
सबक़ सिखाया तक़दीर ने , नसीहत दी खुदाई ने,
कर अपनी ज़मीर को इतनी बुलंद
कोई हादसा न हिला सके तेरे ज़मीर को |
सफरे ज़िंदगी मेँ, आएंगे कई उतार चढ़ाव,
कर खुदा पे ऐतबार, फिर देख , खुदा की ख़ुदाई ||