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15 Aug 2020 · 6 min read

शिव कुमारी भाग १

शिव कुमारी का जन्म राजस्थान के एक कस्बे राजगढ़(शार्दुलपुर) मे लगभग १३३ साल पहले हुआ था। पिता बजरंग लाल जी की ये लाड़ली बेटी एक दम दूधिया रंग की पैदा हुई थी। तीखे नैन नक्श उसे अपनी माँ से विरासत मे मिले थे और रंग पिता ने दिया था।

शिक्षा घर पर ही हुई थी,पाठशाला का मुंह कभी नहीं देखा, पर व्यक्तित्व बचपन से ही थोड़ा दबंग और तेजतर्रार था। अपनी सहेलियों मे उसकी अलग ही पहचान थी। एक छोटा भाई भी था शिवदत्त,जिससे वो बहुत प्यार करती थी। अपने छोटे से कस्बे मे बेख़ौफ़ निकल जाया करती थी,
उसके पिता की अच्छी इज्जत थी, पूजा पाठ कराया करते थे,कसरत का भी शौक था। कहते हैं कि कोई दो मन का पत्थर किसी बगीचे मे पड़ा रहता था जिसे वो अपने हाथों से उठाकर रोज वर्जिश किया करते थे।

कस्बे से कुछ दूर छोटे छोटे रेतीले टीलों से उसे बहुत प्यार था, जिसको वो टीबा कहती थी, अपनी जुबान मे ।

सुबह और शाम के वक़्त, जब सूरज थोड़ा शांत होता था, वो रेत पर बैठ कर उसे निहारती थी, दिन के विदा लेने से पहले,छोटी छोटी कंटीली झाड़ियों और एक आध पेड़ के पास सोई, अलसाई सी परछाइयां उसे बोल देती , कि बहुत वक़्त हो गया है, वो अब घर चली जाये।

रेत मे अपने पांवो के निशान बनाती अपने छोटे भाई और सखियों के साथ, पैरों के निशान की लंबी होती रेखा को मुड़कर देखती और कभी उल्टे चलते चलते सोचती कि ये निशान कल यहीं उसकी राह देखेंगे या हवाएं उन निशानों को उड़ा के कहीं और ले जाएगी, कभी कभी जब उसके पांव की छाप उसको ज्यों की त्यों पड़ी मिलती तो वो बहुत खुश होती और दुबारा अपना पांव उन पर रख कर खुश हो लेती थी।

जब वो १२ बरस की हुई, तो पिता को उसकी शादी की चिंता सताने लगी, किसी ने बताया कि पास के कस्बे रिणी(तारानगर) मे दौलतराम जी का एक १० वर्ष का पुत्र है ,पाठशाला मे हिंदी और संस्कृत का अध्ययन कर रहा है,

रिश्ता तय हो गया और फिर शीघ्र ही बारात आयी, ऊँट पर चढ़कर एक बालिका खेलने कूदने की उम्र मे ससुराल चली आयी।
विदा होते वक़्त वो बहुत रोई ,उसने ससुराल जाने से बिल्कुल ही इनकार कर दिया, माँ ने आंसू मे घुलकर बहते काजल को पोंछते हुए जब समझाने की कोशिश की ,

तो उसने सुबकते हुए बताया कि शादी मे इतनी सारी बनी मिठाइयां , खासकर उसकी दिलकुसार की बर्फियाँ अब उसका छोटा भाई अकेले ही खा जाएगा!!

माँ ने अपनी छलकती आंखों को छुपाकर, एक कपड़े की पोटली मे खूब सारी बर्फियाँ उसके कपड़ों के बक्से के एक कोने मे रख दी।

वो बेमन से उठी और छोटे भाई को आंख दिखाकर कहा कि वो कुछ दिनों बाद ही लौट कर आ जायेगी, मिठाइयां बची रहनी चाहिए। छोटे भाई ने हाँ मे सर हिलाकर उसको थोड़ी ढाँढस तो बंधाई, फिर भी विदा लेते लेते, अपनी माँ को उस पर कड़ी नजर रखने को कहा।

माँ पल्लू को मुँह पर रख कर फूट फूट कर रो पड़ी। इतनी देर से रुका सैलाब अब कहाँ रुकने वाला था।

ससुराल आकर माँ बाप की याद सताती तो,अपने बक्से मे छुपाई बर्फियों को मुँह मे दबाए रोने लगती, सास ससुर अपनी छोटी सी बहु को बहुत प्यार करते थे पर सगे माँ बाप की याद आती ही थी।

ससुराल मे स्वछंद तरीके से कहाँ खेलकूद पाती, ये रोष और झुंझलाहट फिर अपने से दो वर्ष छोटे, पर कद मे लंबे से पति विश्वनाथ पर निकलती, जो उसे फूटी आंख नही सुहाता था,

उसके कारण ही तो उसे अपने घर वालों को छोड़ कर आना पड़ा था।
रात को वो अपनी सास के ही पास सोती थी, जो उसके बालों मे हाथ फेरते हुए सुला दिया करती,

पीली पगड़ी बांधा हुआ पति ,कभी हंसने बोलने की कोशिश भी करता , तो अनमनी होकर जवाब दे देती और कभी अपनी आंखें गुस्से से चौड़ी करके उसे देखने लगती,

विश्वनाथ सकपकाकर फिर पाठशाला जाने मे ही अपनी भलाई समझता।

स्वभाव से शांत प्रकृति और अपनी उम्र से ज्यादा समझदार पति ने उसको पलट कर कभी कुछ नही कहा।

एक बात और थी , उसकी प्यारी पत्नी उम्र मे कुछ बड़ी भी तो थी उससे।

विश्वनाथ का उससे बात करने का बहुत मन करता था, पर वो उसे अपने पास ही फटकने नही देती।

पाठशाला मे उसके कुछ सहपाठी उसकी नई दुल्हन के बारे मे जब ठिठोली करके कुछ पूछते भी तो वो एक शर्मीली सी हंसी के साथ, गुरु जी के श्लोकों को पढ़ने लगता।

शिव कुमारी अपने भोले भाले देवर ,जो उससे ८ वर्ष छोटा था, से हंस हंस कर बात करती थी, अपने छोटे भाई के पास न होने की वजह से, ये कमी अपने देवर से पूरी करने की कोशिश करती।

फिर सास ने उसके मन की हालत समझ कर और उस वक़्त की रीति रिवाजों के अनुसार, शादी के कुछ दिनों बाद ही उसके मायके भेज दिया।

वो पूरे दो वर्ष से कुछ ज्यादा अपने मायके मे ही रही। ससुराल से लौटने के बाद, शुरू शुरू मे, इस दौरान पति का चेहरा कभी आँखों के सामने आता भी तो कुछ भाव मन मे नहीं उभरते, अलबत्ता देवर का भोला भाला चेहरा उसकी आँखों के आगे आते ही वो मुस्कुरा पड़ती।

जब वो चौदह वर्ष की हो गयी, तो उसे भी अब शादी ब्याह का अर्थ थोड़ा थोड़ा समझ आने लगा । सखियों से थोड़ी खुसुर पुसुर करते वक्त ,वो कभी कभी नारी सुलभ लज्जा से आंखे नीची करके मुस्कुरा उठती, जो होठों मे ही दबी रहती, उसे लगता दांत दिख जाने से उसकी निर्लज्जता या उतावलापन कहीं दिख न जाये।
दूसरे ही क्षण, उसे अपने व्यक्तिव का भी ख़याल आ जाता, कि उस जैसी ठोस और सधी मानसिकता वाली, कमजोर कैसे पड़ने लगती है। ये द्वंद जाने अनजाने उसके मस्तिष्क के किसी कोने मे अब चलने लगा था।

वो कभी कभार सोचने लगती, उम्र मे थोड़ा छोटा पति अब देखने मे कैसा लगता होगा?

वो अपने पिता से भी उसकी तुलना कर बैठती, रौबदार , लंबे चौड़े ,दबदबा रखने वाले अपने पिता के सामने , उसका दुबला पतला पति, जिसकी मूछों तक का पता नही था कि कितने वर्षों बाद दस्तक देंगी, कहीं नही ठहरता था। उसको भी तो जमाने के लिए तैयार करने की कुछ जिम्मेदारी उसे लेनी थी।

अपने पिता और ससुर के बीच बीच का संवाद ,यदा कदा, जो किसी आने जाने वाले के मार्फत से होता था, अब थोड़ा ध्यान से सुनती।

पति के पाठशाला मे मन लगाकर पढ़ने की बात सुनकर, वो खुश भी हो लेती।
कभी कभी वो सोचती की उसे अपने पति से इस तरह बेरुखी से नही पेश आना चाहिए था, पर वो भी तो घर के झरोखे से पुस्तक हाथ मे लिए, आंगन मे उसको गट्टा खेलते देख ,कैसे नजरे बचाकर ,झुक झुक कर देखता रहता था, उसे ऐसा करते देख, उसका भी ध्यान बंट गया और उछाले हुए गट्टे, उंगलियों के बीच न आकर इधर उधर बिखर गए और एक बार तो उसे अपनी ओर एक टक तकता देख, उसने जब गुस्से से जीभ निकाल कर मुँह बनाया था, तो जेठ जी ने देख लिया था और मुस्कुराते हुए निकल गए थे, उसे फिर कितनी शर्म आयी थी,

घूँघट भी तो सरक आया था।

इन्ही विचारों मे वो अक्सर खो जाया करती थी, कभी बेवजह अकेले में हंस भी पड़ती थी। एक बार ऐसा करते उसके छोटे भाई के देखने पर, उसने उसको प्यार से बुलाया और पूछा ,

तुमको तुम्हारे जीजाजी याद हैं क्या? भाई ने हाँ कहा, तो बोली , दो महीने बाद वो ससुराल चली जायेगी। छोटा भाई उदास हो गया। उसने उसको गले लगा लिया और बहुत देर उससे चिपकी रही, नम होती आंखों से कुछ बूंदे ,छोटे भाई के कुर्ते पर गिर पड़ी।

इस बार ससुराल जाते वक्त मां ने उसके लिए अलग से मिठाई की पोटली नही दी थी।
माँ ने कुछ सीख और समझदारी वाली बातें अपने गिरह से खोल कर उसके हाथ मे थमाई थी।
उसने अपने हाथों मे इन्हें लेकर, मन के उस कोने मे सहेजकर रख दिया, जो प्रवेश करते ही दिखाई देता था।

दाएं हाथ मे, “विश्वनाथ ” गुदवाते हुए उसे दर्द तो हुआ था, पर पड़ोस की चाचियों, ताइयों को मंगल गीत गाता सुन वो न जाने क्यों शर्मा उठी,

दर्द भी नसों के भीतर जाकर अब जरा शांत हो रहा था।

एक नाम जो आज उसके हाथों छू बैठा था, अब जन्मों तक उसके साथ चलता रहेगा, बस वो नाम अपने मुंह पर कभी भी नही ला पाएगी अब,

मां ने बताया था कि पति का नाम लेने से उसकी उम्र कम हो जाएगी!!

वो सोच रही थी अपने पति को फिर क्या कहके बुलाएगी। अभी तो उसके बच्चे भी नही हुए है कि उसे मुन्ने का बापू कह सके।

Language: Hindi
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