शिक्षक रे झूठ मत बोल
लेख :
शिक्षक रे झूठ मत बोल
– आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट
मेरे प्रस्तुत लेख का शीर्षक ऐसा है कि विषय विस्तार से पहले, इससे आपको व्यंग्य का आभास हो सकता। किन्तु मेरी रचना व्यंग्य नहीं, एक विचारणी मुद्दा है, जिस पर शिक्षक, सरकार और प्रशासन सबको समय रहते विचार करने की आवश्यकता है। उपरोक्त शीर्षक के तहत अपनी बात को विस्तार देते हुए मैं कहना चहूँगा कि, यह सही है कि हर वक़्त सच बोलना सम्भव नहीं है, किन्तु बिना किसी विशेष मज़बूरी के झूठ बोलना और अपनी झूठ से किसी की आँखों पर पट्टी बांधना भी, किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता। वैसे तो झूठ किसी को भी नहीं बोलना चाहिए, किन्तु यदि कोई शिक्षक झूठ बोलता है, तो यह उसके लिए भी बहुत बुरा है और राष्ट्र व समाज के लिए भी। अब बात आती है कि शिक्षक कौन है? क्या वह, जो कि किसी स्कूल-काॅलेज में अध्यापक-प्राध्यापक है, या फिर वह जो कि किसी भी तरह से समाज को शिक्षा देता है? अगर इनमें से एक अथवा ये दोनों ही शिक्षक हैं, तो सवाल पेदा हो सकता है कि मैं अपने इस लेख के माध्यम से आपको शिक्षक कहकर क्यों सम्बांधित कर रहा हूँ? अतः कहना चाहूँगा कि यदि आप उपरोक्त शीर्षक के तहत विषय विशेष पर मेरी बात सुनने के प्रति गम्भीर हैं तो मान लीजिए कि मेरी नज़र में आप भी शिक्षक हैं। पारिभाषिक तौर पर ’शिक्षक’ शब्द का अर्थ चाहे जो भी हो, पर मेरी इस बात से कौन इंकार करेगा कि जो किसी को शिक्षा देता है या फिर जिससे कोई कुछ सीखता है, वह शिक्षक नहीं है? ये पाँच हज़ारी-दस हज़ारी से लेकर लखपति शिक्षक तो आज हुए हैं, पुराने ज़माने में तो किसी पेड़ की छाँव में या किसी पर्णकुटी के आँगन में बैठकर शिक्षा देने वाले ही शिक्षक हुआ करते थे। भले ही उस समय लोकतंत्र नहीं राजतंत्र रहा हो, पर तब भी राजा को आपनी प्रजा की शिक्षा की चिंता रहा करती थी। रहती भी कैसे नहीं, उस समय के राजा स्वयं को स्वामी और प्रजा को अपनी संतान के रूप में जो देखते थे। अगर संतान अनपढ़ और अशिक्षित रह जाए तो देश का भविष्य क्या होगा? कहने की आवश्यकता नहीं कि देश का भविष्य आज भी बच्चों की शिक्षा पर निर्भर करता है और यही वज़ह है कि सरकार चाहे किसी भी पार्टी अथवा दल की हो, वह सबसे पहले बच्चों के स्वास्थ्य व शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देती है।
पारिभाषिक तौर पर कहा गया है कि शिक्षा व्यक्ति के मन का अंधकार दूर करके उसके जीवन में उजाला भरती है। आप इस बात से सहमत हों न हों, पर मैं पूरी तरह से सहमत हूँ और आपको इस बात से सहमत करने के लिए शायद यह काफी रहेगा कि शिक्षा की इसी विशेषता के कारण भारत देश के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी जी अपने देश की जनता से संचार माध्यमों के माध्यम से ‘मन की बात’ करते हैं। शिक्षक दिवस हो या परीक्षा नज़दीक हो, वह शिक्षक न होकर भी अपने देश के बच्चों से जुड़ते हैं, उन्हें परीक्षा के भय से मुक्त रहने के लिए न केवल कहते हैं, बल्कि एक पूरे की पूरी किताब भी उन्होंने इस विषय पर लिखी है। अभिभावकों से भी वह अक्सर कहते हैं कि वो अपने बच्चों को सिखाएं कि वो देश के लिए अच्छे नागरिक कैसे बन सकते हैं।
मतलब यह कि आप चाहे माने या न माने वर्तमान स्थिति में अपने देश के माननीय प्रधानमंत्री जी ने ज़िम्मेदार एवं जागरूक अभिभावक के रूप में देश के हर नागरिक को शिक्षक मान लिया है। जब देश के प्रधानमंत्री जी ने अपने देश के ज़िम्मेदार एवं जागरूक अभिभावकों के रूप में आपको शिक्षक मान लिया है, तो मैं आपको शिक्षक मान कर सम्बोधित क्यों न करूँ? एक लेखक के तौर पर आपसे ही तो मैंने बहुत कुछ सीखा है और जो सीखा है, वही तो लिखा है और अब भी वही लिखने जा रहा हूँ। पर चाहता हूँ कि पहले आप यह बात अच्छी तरह से मान लें कि आप शिक्षक हैं। क्योंकि ऐसा होने पर ही मैं पक्ष-विपक्ष जैसी स्थिति से बच सकता हूँ, वरना कुछ भी कहने पर विपक्ष जब अपने देश के माननीय प्रधानमंत्री को घेर सकता है, तो मेरी क्या औकात है कि मुझे विपक्ष के सवालों का सामना करके ज़वाब न देना पड़े। इसलिए मैं चाहता हूँ कि जिस विषय पर आज हम बात करने जा रहे हैं, पहले उसके पक्ष-विपक्ष को समाप्त करके हम सब शिक्षक बन जाएं और फिर विचार करें कि हम बच्चों को सदा सच बोलने की बात कह कर, स्वयं कितना झूठ बोलते हैं?
झूठ बोलने का आरोप लगने के भय से भले ही आप एक बार फिर पीछे हट जाएं अपने आपको शिक्षक मानने से, किन्तु जब मैं तर्काें के तीर लेकर आपके पीछे पड़ा हूँ, तो आप बच कर जाएंगे कहाँ? अपने देश के माननीय प्रधान जी की बात और मेरे द्वारा उन्हें उदाहरण रूप में प्रस्तुत किए जाने को लेकर आप कह सकते हैं कि यह तो राजनीति है, इसमें अपने शासन को चलाने के लिए नेता कभी भी कुछ भी कह सकता है और समाज के चित्रण के बहाने कोई लेखक भी किसी के बारे में कुछ भी लिख सकता है, किन्तु समाज की उस बात को लेकर आप क्या कहेंगे जिसे समाज सदियों से मानता आ रहा है और कहता आ रहा है कि ‘घर’ बच्चे की पहली पाठशाला और माँ बच्चे की पहली गुरु अर्थात शिक्षक होती है, बच्चा अपनी माँ से बहुत कुछ सीखता है, परिवार में उसकी दादी-नानी, माता-पिता जो भी उसे कुछ सिखाना चाहें सिखा सकते हैं और शिक्षक होने का गौरव हासिल कर सकते हैं?
मुझे विश्वास है कि उपरोक्त तर्क के बाद यदि आप कुतर्क नहीं देंगे, तो आप अपने आपको मन से शिक्षक मान चुके होंगे और मुझे आपको वह गाना याद नहीं दिलाना पड़ेगा जिसमें कहा गया है कि ‘सजन रे झूठ मत बोल खुदा के पास जाना है।’
खुदा को हमने नहीं देखा है, किन्तु अपने देश की जनता को देखा है। झूठ बोलने का मतलब है – सामने वाले के मन से अपने प्रति विश्वास खो देना। समाज में शिक्षक का दर्ज़ा भगवान से बढ़कर होता है। यदि आपने अपने आपको शिक्षक मान लिया है, तो मैं कहना चाहूँगा कि अपने दर्ज़े को बचाए रखने के लिए आप झूठ न बोलें। अपने अंदर वो ताकत पैदा करें कि आप सच बोल सकें और इस देश के बच्चों को सच बोलना सिखा सकें। घर में अपने बच्चों को सिखाएं कि वो अपने विद्यालय में किसी दीवार पर लिखे इस नारे को केवल नारा न समझें कि ‘सदा सच बोलो’। कितना ही अच्छा हो कि इस नारे को विद्यालय की दीवार पर लिखवाने वाले शिक्षक भी अपने जीवन में उतार लें। आश्चर्य की बात है कि एक शिक्षक अपने विद्यर्थीकाल से इस नारे को देखता आ रहा होता है और बच्चों को सच बोलने के लिए लम्बे-लम्बे भाषण भी वह देता है, किन्तु जब बात आती है सच बोलने की तो अक्सर सबसे बड़ा झूठ वही बोलता है। काम के दबाव के नाम पर सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के फोटो खिंच जाते हैं, आयोजन के सम्पन्न होने से पहले ही किसी कार्यक्रम के प्रेस नोट तैयार हो जाते हैं, मीडिया में बयान जारी हो जाता है। अधिकारी के बयान के बाद किसी योजना के क्रियान्वयन को लेकर हुआ आयोजन इलैक्ट्राॅनिक मीडिया में समाचार बन जाता है। जारी प्रेस नोट के आधार पर भी अगले दिन बड़े-बड़े समाचार-पत्रों में सचित्र समाचार के रूप में बड़ी-बड़ी बातें छप जाती हैं। ये सचित्र समाचार कटिंग के रूप में फाईल में पेस्ट हो जाते हैं। इनके आधार पर प्रशासन को अपने यहाँ हुए आयोजन की रिपोर्ट भेज दी जाती है। अध्यापक-अभिभावक बैठक में भी इस तरह की कटिंगस को प्रमाण के तौर प्रस्तुत किया जाता है। यही नहीं, जब किसी शिक्षक को सम्मानित करना होता है, तो शिक्षा विभाग और प्रशासन भी इसी तरह की कटिंगस को आधार बनाता है। यह सही है कि सम्मान अथवा प्रशंसा-पत्र तो उसे ही दिया जाता है, जिसे देना या दिलवाना होता है, किन्तु ज्यादातर मामलों में फाईल का वज़न इस तरह की कटिंगस के आधार पर ही बढ़ाया अथवा घटाया जा सकता है।
सच के पक्षधर मेरे देश के माननीय नागरिको यह सब झूठ नहीं, तो और क्या है? हो सकता है कि मेरे उपरोक्त कथन को झुठलाने और अखबारी सच को सच साबित करने के लिए एक नहीं, बल्कि कई लोग एक साथ सामने आएं किन्तु बच्चे भगवान का रूप होते हैं, उनकी सुनें, उनके मन की सुनंे और उनकी आँखों द्वारा देखे गए सच को अपनी आँखों से देखने का कष्ट करें। संचार के इस युग में सी.सी. टी.वी. कैमरे फेल हो सकते हैं, किन्तु बच्चों की आँखें नहीं। जब एक शिक्षक के तौर पर आप उन्हें सच बोलना सिखा रहे हैं, तो अखबारी सच की समीक्षा भी होनी चाहिए। आपके बच्चों के लिए जब देश के प्रधानमंत्री इतने चिंतित हैं, तो आपको भी चिंतित होना चाहिए। अपने बच्चे को किसी स्कूल में दाखिला दिलवाते वक़्त आपको विज्ञापन पर नहीं, बल्कि काम पर ध्यान देना चाहिए। शिक्षक को भी चाहिए वह झूठ न बोले, क्योंकि सवाल केवल एक उसके जीवन के बनने-बिगड़ने का नहीं है, सवाल है, उसके हाथों देश के भविष्य के बनने-बिगड़ने का।
फिर कहूंगा कि बच्चे के सम्पर्क में आने वाला हर व्यक्ति उसका शिक्षक है और जब हर व्यक्ति यह गाना गाते हुए झूठ बोलने से बचने की शिक्षा देता है कि -‘‘सजन रे झूठ मत बोल खुदा के पास जाना है – न हाथी है, न घोड़ है, वहां पैदल ही जाना है’’ तो वह बतौर शिक्षक अपने आपसे भी तो यह कह सकता है कि ‘‘शिक्षक रे झूठ मत बोल यदि समाज को मुंह दिखाना है – न यह मान रहेगा, न सम्मान रहेगा, सब कुछ यहीं धरा रह जाना है।’’
जी हां, खुदा को तो किसी ने नहीं देखा है, इसलिए कह सकता हूँ कि क्या पता वहां जाना भी है कि नहीं। किन्तु समाज से बच कर हम कहां जाएंगे? यदि झूठ बोला और अखबारों में झूठ छपवाया, तो बच्चों के रूप में जो वर्तमान समाज हमें देख रहा है, भविष्य में इसे हम क्या मुंह दिखाएंगे? आज के बच्चे से कुछ भी छुपा हुआ नहीं है। बच्चा वो आईना है, जिसके चेहरे पर अपने परिवेश का सच और दिमाग़ में अपने शिक्षक की तस्वीर हम कभी भी देख सकते हैं। इसलिए अपने देश के माननीय प्रधानमंत्री जी की बात से सहमत होते हुए कहना चाहूँगा कि ‘‘शिक्षक रे झूठ मत बोल, हमें भारत को दुनिया से अलग बनाना है।’’
कहने की आवश्यकता नहीं कि समझदार के लिए संकेत काफी होता है और शायद ही कोई शिक्षक होगा, जो अपने आपको समझदार नहीं समझता होगा, इसलिए इस विषय पर शिक्षक के लिए अब अधिक कहने की आवश्यकता भी नहीं है। हां सरकार से इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि वह केवल अखबारी कतरनों और मीडिया में दिए गए अधिकारियों के बयान को ही अपनी योजनाओं की फीडबैक न माने संचार क्रांति और इंटरनेट तकनीक से प्रमाणित सूचना के युग में यह भी देखे कि जो कहा गया है, या दिखाया गया वो सच कितना है? व्यावयसायिक प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से अखबार अथवा मीडिया की अपनी मज़बूरी हो सकती है, किन्तु शिक्षक की क्या मज़बूरी हो सकती है कि वह बच्चों को सदा सच बोलने की बात कह कर स्वयं झूठ बोलता है? अगर सरकार चाहे तो अखबारी कतरनों अथवा मीडिया से मिली फीडबैक की सत्यता जाँचना कोई मुश्किल काम नहीं है और इस तरह की सत्यता जाँच से उन शिक्षकों को भय भी नहीं खाना चाहिए जो न केवल बच्चों को सच बोलने की कहते हैं, बल्कि अखबार को जारी प्रेस नोट में भी सच लिखते हैं और मीडिया को दिए बयान में भी वही कहते हैं, जो कि सच होता है और अन्य से भी कहते हैं कि ‘‘शिक्षक रे झूठ मत बोल।’’
– आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट,
सर्वेश सदन, आनन्द मार्ग कोंट रोड़,
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