शिकारी
तड़फड़ाती छटपटाती जल बिना है वो बेचारी,
किन्तु उसकी प्यास को समझे कभी ना ये शिकारी।
उसकी चंचल चाल ऐसी सागर कभी स्थिर ना रहता,
जल को जीवन मानती, पर शिकारी ये ना समझता।
है बड़ा निष्ठुर वो पापी, यत्न सारे है वो करता,
किन्तु जल की ये विवशता, चाह कर भी कुछ ना करता।
मीन जल के संग जबतक मानती खुद को स्वतंत्र,
नीर की छाया से बाहर हर श्वास उसकी है परतंत्र।
तंत्र सृष्टि का है ऐसा, हर मंत्र सच्चा हो जाता विफल,
किन्तु काली चालें चलकर ऐसी वो शिकारी हो जाता सफल।
पर क्या कभी सोचा किसी ने ये समाज है एक शिकारी
मीन है अबला वो नारी, चालें चलता वो शिकारी ।
लाख यत्न करती फिर भी फँस ही जाती वो बेचारी,
वो है पावन मीन किन्तु आज हम सब है शिकारी।