शायर कोई और…
शायर कोई और
(एक अनुभूति)
वो तभी आती है, जब मैं पूरी तरह नींद के आगोश में बेखौफ होकर इस दुनिया से दूर कहीं ख्वाबों के दुनिया में निरंकुश विचरन करता रहता हूँ। शायद मेरा ख्वाब देखना उसे गवारा नही…
बारिश आज शाम से ही कहर बरपाने में मसरूफ था, काली अंधेरी, खौफनाक, निःशब्द रात अपने शबाब पर थी। झींगुरों, मेढ़कों, कीट पतंगों की आवाजें रात के खामोशी को छेड़ कर और भी भयावह बना रहे थे और मैं अपने बिस्तर पर तकिये को बाहों में भर कर अलौकिकता के एहसास में डूबा हुआ था।
अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। पहले तो मैंने अनसुना किया। परंतु बार-बार के दस्तक पर नींद खुल गई और अलसाई आँखों को मलते हुए मैंने दरवाजा खोला। सामने “वही” थी।
“इतनी रात गए बारिश में” मैने पूछा।
“हाँ। मैं समय हूँ और समय को कहां किसी की परवाह होती?” अदा से उसने अपनी भीगी हुई जुल्फों से पानी के कुछ बूंदों को मेरे चेहरे पर झटकते हुए कहा और कमरे के अंदर आकर बिस्तर पर बैठ गई।
आज तो वो और भी खुबसूरत लग रही थी। बारिश में भीगने की वजह से ही शायद, पर लालटेन की मद्धिम रोशनी में वो किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी।
अर्धपारदर्शिता लिए सफेद लिबास में लिपटी माथे पर गहरे लाल रंग की बिंदी। कपोल, कंधों पर चिपकती हुई उसकी भीगी जुल्फें…
ये पहली बार नहीं था फिर भी मैं उसे मंत्रमुग्ध सा देखता जा रहा था।
“क्या देख रहे हो?” बिना पलक झपकाए शिद्दत से वो मुझे अपनी ओर देखते देख कर बोली।
जवाब मे मैं अपनी आँखें, उसकी उस गहराई लिए बड़ी-बड़ी नशीली आँखों में डाल दिया।
मैं उसको अपने करीब लाना चाहता था। उसके चेहरे पर बिखरी जुल्फ के लटों को संवारना चाहता था। उसको गले लगाना चाहता था। जिस्म से लिपट कर रूह तक उतरना चाहता था। दरमियान जो दूरियां थी, खत्म कर देना चाहता था परंतु हर बार ऐसा कहां होता, जैसा इंसान का दिल चाहता है।।।
काश की मैं उसे महसूस कर पाता…
हर बार के तरह इस बार भी उसने मेरे मेज पर बिखरे कागज के एक टुकड़े को उठा कर मेरे हाथों में दिया और कहा चलो प्रारंभ करो। मैं उसके इरादे से वाकिफ था सो कलम उठाया और चल पड़ा… वो बोलती गई मैं लिखता गया।
जैसे ही उसका काम पूरा हुआ शुभरात्री बोलने के साथ जल रही लालटेन के रोशनी को कम करते हुए वो कमरे से बाहर निकल गई।
सुबह नींद से जागा तो जेहन में कुछ यादें और मेज पर पड़े उस कागज के टुकड़े पर कुछ “शब्द” बिखरे पड़े थे, जो शब्द कभी राजीव की शायरी, कभी कहानी और कभी कविताएँ कहलाती है।
-के के राजीव