व्यथा बृद्ध श्रमिक की
कोई न समझ पायेगा
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इनके इस श्रम पर मैं क्या कहूँ
क्या शब्द इन्हें नाप सकेंगे ?
क्या इनकी भावनायें भाँप सकेंगे?
हम इन्हें देख दो बातें कह देंगे
ज्यादा से ज्यादा एक कविता गढ़ देंगे
बहुत खूब , वाह – वाह
जैसी तारीफ मिलेगी
पर क्या इससे इनकी
वेदनाएं कभी घटेंगी
बचपन कुड़ा बीनते बीता
समझ न आई जवानी
बोझ ढोते बुढापा बीत रहा
यहीं है अमर कहानी
हमें क्या ? हम तो इनके चेहरे
सलीके से पढ लेंगे
अनुभव जो है पढने की
मर्मस्पर्शी दो बाते कह देंगे
अपनी जिम्मेदारी निभायेंगे
फिर अपने ही धुन में मगन
नौ दो ग्यारह हो जायेंगे
किन्तु ये यूं ही बदस्तूर
अपने जीवन का बोझ
निरंतर ढोते रहेंगे
हर सुख से बेखबर
अवसान की ओर
अपने चिता की लकड़ी
खुद ही संजोते रहेंगे
बदस्तूर… बदस्तूर.. बदस्तूर
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✍✍पं.संजीव शुक्ल “सचिन”