व्यंग प्रभु मोरे अवगुण ….
व्यंग्य
प्रभु मेरे अवगुण ….. / सुशील यादव
वे प्रभु थे। …..सभी के गुण-अवगुणों का लेखा-जोखा खुफिया तरीके से रखते थे । पहले के जमाने में ज़रा सी रिक्वेस्ट पर, प्रभुओं को पसीजते हुए देखा जा सकता था। तब पाप के बड़े-बड़े घड़े नहीं होते थे ,बस छोटी-छोटी ‘चुकिया नुमा’,पाव-आधा किलो समाने लायक हण्डिया होती थी,जो ज़रा से पाप मे छलकने लग जाती थी। मसलन तब आर्त्थिक तंगी के चलते प्रभु के सामने, जलाने वाले दिए में तेल या घी कम डाल दिया जावे, तो आत्मग्लानी में माफी बतौर, अवगुण को चित न धरने की चिरौरी की जाती थी। तन्मय होकर आदमी गीत गा लेता था :’प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो‘। आज पाप के घड़े भरते तक आदमी किसी कोने में दुबक- दुबका के पड़ा रहता है|किसी माई के लाल को खबर नहीं होती कि साले का पाप घडा भर के छलकने पर उतारू है|उसे आत्मग्लानी का बोध भी , नहीं
के बराबर नहीं होता।
तब पाप के विस्तार में पूजा-पाठ की सामान्य चूक के अलावा, नोटिस किये जाने लायक कोई बात, बहुत खोज के बाद भी सामने नहीं आती|उन दिनों ,मन में दहेज़ का प्रपंच नहीं था| किसी की जमींन हथियाने के लालच नहीं पाले जाते थे। नजूल के प्लाट में हिम्मत नहीं होती थी कि टपोरी चाय की गुमटी डाल ले| जमाखोरी की आदत नहीं समाई थी ,उलटे किसी मेहमान के बिन बुलाये आ जाने पर महीनों स्वागत का बाकायदा इन्तिजाम होता था। उन दिनों दालें भरपूर मात्रा में उपलब्ध रहती थी, जिससे मात्रा बढाने के नाम परपानी डालने का सवाल पैदा नहीं होता था|उन्ही दिनों पंचों में परमेश्वर का वास हुआ करता था ऐसा लोगों का मानना था ।
वे दिन लद गए।
जाने कहाँ गए वो दिन की तर्ज पर आज आकलन करने पर पाते हैं कि ,जो डाल- डाल पर सोने की चिड़ियाये बैठा करती थी ,समय ने उनपे आज दाल- दाल की थैलियों को चिढाने के अंदाज में टांग दिया है कि ले मजदूरनुमा पंछी,पखेरू , आदमी.,,,हिम्मत है तो उतार… ,खा के दिखा।
वे दिन भी लद गए जब एक के घर माताम होने पर सारा मोहल्ला शोकमग्न हो जाता था। किसी के घर चुल्हा नहीं जलता था, धुँआ के न उठने-फैलने को शांत देख कर पडौसी गाँव के लोग ठीक तेरहवी दिन के बारे में आने जाने वालों से पूछ लेते थे। पडौस गाँव से बिरादरी के लोग तमाम राशन पानी मातमी घर में छोड़ आया करते थे।
हवा हो गए वो दिन भी, जब आदमी की निगाह तराजू के कांटे पर नहीं होती थी। सामान का आपसी बटवारा अपने-अपने उपजाए जींस के एक्सचेंज पर हो जाया करता था। तब आदमी की मामूली जात में औकात का अकूत भंडार मिलता था।
मूछ के एक बाल की भी कीमत होती थी, जिसे गिरवी रख के सामान उठाया जा सकता था। आज नाइ की दूकान में अनगिनत ऐसे बाल नाली में फेके -बहा दिए जा रहे हैं।
अवगुण के वायरस को घुसने का मौक़ा, संयम के एंटी वायरस की वजह से कभी मिल नहीं पाता था।
जो सदाचार ,सद्गुण और नैतिकता का पाठ दिमागी पारे को गरमी देने से बचाए रख के कूल रखता था वही आजादी के बाद मानो लुप्त होते गया।
अब हर आदमी बौखलाहट के मूड में है। बी.पी. पाले हुए आदमी की सोच में,थर्मामीटर का पारा हरदम गर्म होने के कगार पर रहता है।
आज के युग में ,’प्रभु’ एक हो तो आदमी विनती-चिरौरी की सोचे ,खड़ताल-मजीरा ले के बेसुध होते तक अवगुणों का बखान करे उसे माफी देने की बात कहे ……मगर एक से ज्यादा हो तो ध्यान बटना लाजिमी है। बॉस ,बनिया ,किडनेपर, ठेकेदार और सबसे भारी सरकार इन दिनों के नए प्रभु अवतारों में शरीक हो गए हैं।
इन अवतारी प्रभुओं को ‘साधना’ और बस में करना, सामान्य के बस की बात नहीं है। आपने कमाई का जरिया निकाला नहीं कि ये आपको आड़े हाथों लेने के लिए राह में तत्पर खड़े मिलते हैं। किसी को कमीशन चहिये ,किसी को हिस्सा, किसी को रंगदारी तो किसी को टेक्स …..?
इनसे लाख विनती करो ये पसीजने वाले जीव नहीं होते। हमारे अवगुण को इग्नोर करने के नाम पर ये हमे जान से मारने की घमकी तक दे डालते हैं।
अपने भीतर झांकने पर हमे अपने अवगुणों की पहचान यूँ होती है|हममे लालच समाया है ,धन कमाने की लिप्सा है। हम घूस खाए बिना ,मरियल बैल की तरह खुद को महसूस करने की आदत पाल चुके है। सरकारी- ठेके, खनिज ,रेल,पर्यावरण .और यहाँ तक शौचालय निर्माण में घपले न करो तो सूना- सूना,लुटा –लुटा सा लगता है। बिना सरकार को चूना
लगाए, ‘रस-पान’ में स्वाद का आभास नहीं होता। कमोबेश यही नियती बन गई है। जाति के नाम पर लडवाने,और पत्थर फेकने में नोट की बारिश होती है। मन्दिर-मस्जिद के सामने भीख मांगने से ज्यादा फायदा, बम-प्लांट करने में होते दिखता है|कदाचित ये अवगुण किसी मजहब में माफी के काबिल नहीं ठहरते।
वैसे तो अपने देश में समाजवाद का नारा बहुतो ने दिया,इस नाम की पार्टी भी दशको तक एक सूबे में राज की। नेताओं ने अपने उल्लू सीधे किये मगर नोट-बंदी के शार्टकट फार्मूले से यह एकाएक लागू हो गया। आज अमीरों के खजाने लुट रहे हैं ,जनता उनको अपने समकक्ष देख रही है। घर में रखा धन काला हो गया है जब तक रकम को बैंक ले जाकर पालिश नहीं करवा लेते ,इस्तेमाल के लिए वो सफेद नही होने का। धन की लिप्सा ने जो अवगुणों की गठरी को जो भारी –भरकम बना दिया था वह आज हल्का होने के कगार पर है। नये सिरे से इसे ‘वजनी’ बनाने में एक खौफ़ काबिज रहेगा।
सुशील यादव