व्यंग्य:- कलाकारों के भीष्म पितामह
कलाकारों के भीष्म पितामह के नाम से नवाजे जाने का जो सुख उन्हें प्राप्त होता था वह सुख शायद स्वर्ग आधिपत्य से भी प्राप्त न होता हो। क्षेत्र में कलात्मक गतिविधियों पर वह अपना एकाधिकार समझते थे हर कार्यक्रम की अध्यक्षता मानो उनकी बपौती थी। नौनिहाल नवागत कलाकारों को अपनी जागीर समझते। अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से वह कलाकारों को मोहने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ते थे, उन्हें शिखर तक ले जाने लाने का मानो एकमात्र रास्ता उन्हीं के दर से होकर गुजरता था। वह कला के पुरोधा थे अथवा नहीं यह तो नहीं जानते मगर इतना तय है कि कला नगरी के लाल बुझक्कड़ आवश्य थे।
वह किसी एक विधा के मर्मज्ञ बनने की अपेक्षा सर्वकालीन सर्व विधाओं के सर्वज्ञ बनने में ज्यादा विश्वास रखते थे। कोई भी कलाकार जो उनसे किसी विधा के बारे में समझना चाहे तो वह बगैर रुके अपनी राय परोसने में कभी पीछे नहीं हटते –
“ऊपर छापा हो सही भीतर कुछ भी होए।
सारी कलायें एक हैं हमसे पूछे कोय।।”
आखिर वह कला के भीष्म पितामह थे, इस बात को उन्होंने सार्थक करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी उन्होंने नीति-अनीति न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म को कभी आड़े नही आने दिया। वे हस्तिनापुर की हस्ती बनी रहें हस्तिनापुर रहे या न रहे इस बात पर उन्होंने हमेशा ध्यान दिया। अच्छी कला और कलाकारों को तवज्जो देने की वजाह उन चाटुकारों को महत्व दिया करते जो उनकी जय जयकार कर सकें, जो उनसे ज्यादा बेहतर न कर सके, कृष्ण से ज्यादा कर्ण के हमेशा पक्षधर रहे। उन्होंने नेतृत्व को भी एक विधा के रूप में ही स्वीकार किया और जब बात विधा की हो तो पीछे हटना धर्म संगत नही।
वह कला से कहीं ज्यादा सौंदर्य के भी उपासक थे आखिर हों भी क्यों न सौंदर्य कला का मूलाधार जो है । वे कलाकारों की कला की वजाह उनके रूप सौंदर्य को विशेष महत्व दिया करते थे, सर्व विधाओं के सर्वज्ञ जो थे। एक दूसरा कारण भी महत्वपूर्ण रहा द्वापर युग में जिस प्रेम से महरूम रहे भीष्म अब अपनी पुरानी गलती दोहराना नही चाहते थे। जो गलती उन्होंने गंगा पुत्र होने के नाते की अब उसे इस जन्म में तो कम से कम नही करने की भीष्म प्रतिज्ञा ले रखी थी। अब वे सौंदर्य के लिए पूर्णतः समर्पित थे। उसकी स्तुति में अपने कलात्मक साहित्यिक तुणीर के समस्त शब्द बाणों से अभेद्य अचूक निशाना साधते रहते और उस वक्त तक वार करते रहते जब तक कि सौन्दर्य उनके शब्द बाणों से घायल न हो जाये।
पितामह कहलाना कल तक उन्हें गरिमामयी लगता था, आज वह मन ही मन खलने लगा। पितामह शब्द से वुज़ुर्ग होने का आभास होने लगा जो उन्हें कम से कम अब तो गवारा नहीं। विद्युत और चुंबक विज्ञान के नियमों का भी उन्होंने अक्षरसः पालन किया।
सजातीय धुर्वों में प्रतिकर्षण और विजातीय धुर्वों में आकर्षण का अनुपालन जिंदगी भर करते रहे। जब भी बारी सौंदर्य की आई तो वरबस झुकाव एक तरफा हुआ और अपना भार कम करते हुए सौंदर्य के पढ़ले को भारी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने विज्ञान के नियमों को भी किसी कलात्मक विधा से कम नही आँका इसीलिए तो नियमों से हटकर वह कभी नहीं भागे।
बाणों की शैया पर लेट करें अपनी इच्छा मृत्यु का प्रदर्शन तत्कालीन समय में किया उसे वह आज तक न भूल पाए इस जन्म में भी उन्होंने अपने अहम को बचाए रखने के लिए न जाने कितने कनिष्ट बाणों की शैया पर लेटना पसंद किया। आखिर वो थे ही कलाबाजियों के भीष्म पितामह।
✍? अरविंद राजपूत ‘कल्प’