वृद्धाश्रम
निज कंधों पर भार उठाते, थामकर ऊँगली जो चलना सिखाते,
हर अभिलाषा को पूर्ण करते, मुँह में ग्रास रख मेरी क्षुधा मिटाते।
तनिक छींक भी आए बच्चों को तो, आसमान सर पर उठाते,
पकड़ कर हाँथ, सहारा के बदले, हम उन्हें वृद्धाश्रम पहुँचाते।
अभिभावक अपने धर्म निभाते हैं, हम कब अपना धर्म निभाएंगे,
लोग कहते अगर हर घर बेटियाँ हो तो, वृद्धाश्रम बन्द हो जाएंगे।
किन्तु कटु सत्य है, हमारी बहूएँ यदि बेटियों का धर्म निभाएंगी,
गृहस्थाश्रम में रहेंगे बुजुर्ग अभिभावक, वे वृद्धाश्रम नहीं जाएंगे।
इक्कीसवीं सदी की बात हम करते,चन्द्रमा पर भी पहुँच जाते हैं,
रूढ़िवादिता के साये में फिर क्यों, हम दकियानूसी बन जाते हैं।
?? मधुकर ??
(स्वरचित रचना, सर्वाधिकार©® सुरक्षित)
अनिल प्रसाद सिन्हा ‘मधुकर’
ट्यूब्स कॉलोनी बारीडीह,
जमशेदपुर, झारखण्ड।