विसर्जन
विसर्जन…………
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कल तक माँ के चरणों में पड़ा था
आज मूर्ति विसर्जन को सबके संग खड़ा था
ऐसा लगा जैसे कुछ छूट रहा है
हृदय के अंदर कुछ टूट रहा है
सब उत्साह में माँ की जय बोल रहे थे
प्रकृति के उलझे नियमों को खोल रहे थे
मैं स्तब्ध एक ओर खड़ा था
पता नहीं किस सोच में पड़ा था
देख रहा था भुलते भागते छड़ों को
खुद की हाथों से छूटते हुये
माया – मोह के बन्धन को
एक-एक कर टूटते हुये।
मन जहाँ रम जाय
वहीं भक्ति का प्रयाय बन जाता है
मानव जीवन का आधार बन जाता है
मन का विश्वास ही है जो
मिट्टी की मूरत में जान नजर आता है
एक निर्जीव पत्थर भी भगवान नजर आता है
विश्वास से रिश्ता है मोह का
बंधन और विछोह का
प्रेम के उत्कर्ष का
भक्ति के चर्मोत्कर्ष का
भावनाओं के उमड़ते सागर का
विछोह भरे गागर का
विछोह जो कोई अपना रुठे
भक्त से भगवान का संग छूटे
मन कहता है प्रकृति को
रीत निभाने न दूंगा
अपनो को अपने से दूर जाने न दूंगा
फिर भी वक्त के आगे
हर इंसान झुक ही जाता है
साथ चाहे किसी का हो
छूट ही जाता है।
यादे रह जाती है जीवन ढल जाता
काल के गाल में गल जाता है
हर उत्सव के बाद
एक स्याह दिन अवश्य आता है
तभी तो पूजनोपरांत मूर्ति विसर्जन को जाता है।।……
……..पं.संजीव शुक्ल “सचिन”