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22 Jul 2019 · 1 min read

विरह-४

शाम ढलते ही
तेरे खयालों की चुभन
और एक उफनता ख़ालीपन
बना जाता है
माथे पर एक शिकन
रोज की तरह

लम्हों की सीढ़ियां
बढ़ा लेती है
कद अपना
बदले वक़्त की
शोहबत में

सर्द हवाओं का
बेसुरा शोर
बाँटता फिरता है
सिहरन की चादर
बेपरवाह मेरी हिकारत से

करवटें बदल कर
जो ढूंढा सकून
तो मिला दबा सा
सिलवटों में
अपनी ही बेबसी में
सिमटा हुआ

तेरे ख्वाब भी
थके थके से हैं
रोज आने जाने से

आज सबको कर दिया है
रुखसत
गुजरूँगा कुछ वक्त
अपनी बैचैनी के साथ

Language: Hindi
3 Likes · 2 Comments · 335 Views
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