विरह की बरसात
#विधा — राधिका छंद
विरह की बरसात
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यह बीत रही है शाम, सुनो घर आओ।
इन नयनन में तुम आज,अभी बस जाओ।
यह नयना सुबह व शाम, ढूंढती तुमको।
अब नींद नही दिन रैन, सुनो जी हमको।
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सजल नयन मेरी आज, विरह की वेला।
कर मो पे तुम उपकार, न रहूँ अकेला।
अब तुम ही हो सरताज, नयन सुख वारो।
विरह का होय परिहार, अब तो पधारो।
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अब आओ प्राणाधार , अभी आजाओ।
मम मन के खुले हैं द्वार, आन बस जाओ।
क्यों दुख देते चितचोर, समय है भारी।
दर्शन दो मोहे नाथ, न रहूँ दुखारी।
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जो आये ना सरकार , मरण है मेरा।
अब जीवन के दिन चार, कोई न तेरा।
अब आजाओ हमराज, मिलन हो जाये।
जो दिल में है अनुराग , उसे बरसायें।
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✍✍ पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण
बिहार