विनाश अब दूर नहीं
आज ठंढ बहुत ज्यादा है मेरे मुख से यह शब्द फुटे ही थे तभी पिताजी तपाक से बोल पड़े ….बाबू अब जो भी हो रहा है प्रकृति की तरफ से अत्यधिक ही हो रहा है …पिछले वर्ष भुकम्प आया जिसे कुछ लोग जलजला के नाम से भी संबोधित करते हैं सबको अंदर तक हिला गया। आज की तारीख में जो बृद्ध अस्सी या नव्वे के ऊपर हो चूके हैं उनका भी यह मानना था कि उन्होंने अपने होस में ऐसा भूकंप या जलजला नहीं देखा।
इस भूकंप से कुछ हीं वर्ष पहले सुनामी जैसा कहर फिर चक्रवात, भुज में आया जलजला जिसने समूचे विश्व को अक्रान्त कर दिया , हृदयविदारक परिस्थितियां उत्पन्न हुईं। सम्पूर्ण विश्व भय के आगोश में जीने को मजबूर था आज है और आगे भी कुछ बदने नहीं जा रहा। पिछले वर्ष आया बाढ, पापा कह रहे थे ….हमने ऐसा बाढ अपने जीवनकाल में कभी नहीं देखा, वह बाढ भी पहले आने वाले तमाम बाढों से ज्यादा ही था ।
पिछले वर्ष चीन में भी तो दिल को दहला देने वाला बाढ आया था , आजकल सबकुछ अत्यधिक ही हो रहा है गर्मी अत्यधिक, जाड़ा अत्यधिक, कहीं सुखा कही बाढ, कहीं भूस्खलन, यह सभी परिस्थितियां प्रकृतिक अस्थिरता की निशानी है।
हम सब इस दिशा में अभी भी सोचने को तैयार नहीं हैं आखिर ये स्थितियां क्यों उत्पन्न हो रही हैं। प्रदूषण आज चरम को स्पर्श कर रहा है, पेड़ निरंतर काटे जा रहे हैं, नदियों की बहती धाराओं से हम आये दिन छेड़छाड़ कर रहे हैं विनाशकारी रसायनिक यंत्रों का उत्पादन व प्रक्षिक्षण नित्य प्रति होता जा रहा है , हवाओं में विष घोलने का एक भी मौका हम जाया नहीं होने दे रहे।
समस्या है आज का मानव व प्रलयंकारी मानवीय सोच जो खुद को सर्वसामर्थी मानकर ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता, जब कोई भीषणतम प्राकृतिक आपदा आती है विश्व इस विनाश से बचने का इनके रोकथाम के युगत में लग जाता है , आखिर ये विभिषकायें क्यों दस्तक दे रही हैं सोचता है किन्तु यह सोच क्षणिक हीं होती है फिर जैसे ही इन प्राकृतिक ईश्वरीय आपदाओं से वह निजात पाता है फिर से ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देने में लीन हो जाता है।
नित्य प्रति नये चमत्कार, नई खोज को तत्पर आज का प्रगतिशील, बुद्धिजीवी मानव वर्ग ईश्वरीय सत्ता से जैसे खिलवाड़ करने को आतुर है, अगर इसके वश में हो तो यह जीवन और मृत्यु को भी अपने वश में कर सर्वशक्तिमान बन जाय किन्तु यहीं वह विन्दु है जहाँ आकर उसे ईश्वरीय सत्ता का पल दो पल के लिए भान होता है परन्तु अपने इस ज्ञान को वहीं झटक कर फिर ईश्वर से प्रकृति से दो दो हाथ करने निकल पड़ता है।
परिणाम आप, हम, हमसभी झेलने को मजबूर हैं वह रोकर झेलें या हस कर किन्तु झेलना तो है हीं।
लेकिन अब समय आगया है गहन आत्मचिंतन का वर्तमान परिस्थितियों के मंथन का शायद भावी संभावित विनाश को रोका जा सके वर्ना तैयार रहिए संपूर्ण विनाश में अब अधिक वक्त शेष नहीं…..।।
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”