Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
6 Mar 2017 · 4 min read

विचार, संस्कार और रस [ तीन ]

रसमर्मज्ञ डॉ. राकेश गुप्त रसास्वादक के संस्कारों के संबंध में चर्चा करते हुए लिखते हैं कि ‘‘एक ओर कवि की परिवेश होता है, दूसरी ओर सहृदय का। कवि ने जिन परिस्थितियों, परंपराओं और संस्कारों से बंधकर काव्य की रचना की है, सहृदय जब तक सामंजस्य नहीं कर लेता, तब तक वह रचना उसके लिए आस्वाद्य नहीं हो सकती। वर्ग-संघर्ष को साहित्य का प्राण मानने वाले मार्क्सवादी पाठक बिहारी के काव्य का आस्वादन नहीं कर सकता।’’1
डॉ. राकेश गुप्त के उक्त कथन से एक आस्वादक के बारे में रसात्मकबोध संबंधी जो तथ्य उभरते हैं, उनके अनुसार एक कवि अपनी परिस्थितियों, परंपराओं और संस्कारों से बंधकर जो काव्य-रचना करता है, वह काव्य-रचना आस्वादक के लिए तभी आस्वाद्य होगी, जबकि कवि के संस्कारों द्वारा सृजित काव्य-रचना के संस्कारों, जीवन-मूल्यों, मान्यताओं से आस्वादक के संस्कार, जीवन-मूल्य, आस्थाएं, परम्पराएं आदि मेल खायें। काव्य के मूल्य जब आस्वादक के मूल्यों से मेल खा जाते हैं, तभी उसमें रुचि और रमणीयता जैसे तत्वों का समावेश होता है। सारतः कवि जिन मूल्यों या संस्कारों के माध्यम से काव्य में रसात्मकता की स्थिति लाता है, एक आस्वादक भी उन्हीं मूल्यों से बंधकर रसात्मकबोध ग्रहण करता है।
रस आचार्य भरतमुनि भी इस तथ्य पर पूरी तरह सचेत थे कि ‘‘भिन्न-भिन्न रुचियों के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के दृश्यों से तुष्ट होते हैं। तरुणजन काम से, विरागी मोक्ष से, शूर वीभत्स से और वीर रौद्र से तुष्ट होते हैं।2
इसका अर्थ यह हुआ कि एक सामाजिकों या कथित सहृदयों की जिस प्रकार की मनोवृत्तियां बन जाती है, वह अपनी मानसिकतानुसार विविध विषयों से तुष्ट होते हैं। कारण स्पष्ट है- तरुणजन काम से इसलिए तुष्ट होते हैं क्योंकि उनके मन में नारी भोग का विचार रहता है। ठीक इसी तरह समाज को माया, मोहजाल मानने वाला विरागी, समाज से विरक्त होने में इसलिए तुष्ट होता है क्योंकि वह यह मानकर चलता है कि उसे ईश्वर के सामीप्य से ही मोक्ष मिलेगा। शूर या वीर वीभत्स और रौद्रता से भरे कार्य करके इसलिए तुष्ट होते हैं ताकि समाज उन्हें श्रद्धा के साथ देखे या उनके भय खाए या वे ऐसे कृत्य कर पराजितों पर शासन कर सकें। शूर या वीरों की यही मानसिकता, उन्हें शौर्य और वीरता से भरे काव्य के प्रति रससिक्त करने में सहायक होती है।
आचार्यों की आस्वादन के संबंध में रसात्मक व्याख्या की एक कमजोर और दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह है कि जब रसों के नाम गिनाने की बात आती है तो उसकी व्याख्या में वे भी रस समेट लिए जाते हैं जिनका रमणीयता या रागात्मकता से सीधा-सीधा कोई संबंध नहीं होता। लेकिन जब आश्रय में रसनिष्पत्ति संबंधी सिद्धांत गढ़ा जाता है तो उसके अंतर्गत काव्य का सिर्फ रमणीय पक्ष ही लिया जाता है।
जब डॉ. गुप्त यह तथ्य स्पष्ट रूप से स्वीकारते हैं कि काव्य के प्रति पाठक के प्रतिक्रिया ही पाठक का रसात्मकबोध होती है और इस रसात्मकबोध की स्थिति में पाठक संवेदनात्मक या प्रतिवेदनात्मक दोनों में से किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया कर सकता है।’’1 तब पहला प्रश्न तो विचारने योग्य यह हो जाता है कि क्या प्रतिक्रिया को रस माना जाए या रस के अंतर्गत प्रतिक्रिया को अनुभाव की श्रेणी में रखा जाए। हमारे विचार से प्रतिक्रिया अनुभाव ही ठहरती है, प्रतिक्रिया चूंकि भावोद्बोधन के कारण होती है अतः डॉ. गुप्त का प्रतिक्रिया सिद्धांत चाहे अधूरा ही सही, लेकिन रस के क्षेत्र में प्रतिवेदनात्मक प्रतिक्रिया के माध्यम से एक नया आयाम यह जरूर खोलता है कि किसी भी काव्य-सामग्री के पाठन के समय मात्र पाठक संवेदनात्मक रसात्मकता से ही सिक्त नहीं होता, उसका रसात्मकबोध प्रतिवेदनात्मक भी हो सकता है।
डॉ. राकेश गुप्त के प्रतिक्रिया सिद्धांत को सार्थक और संशोधित स्वरूप में ग्रहण करने के उपरांत अब दूसरा विचारणीय प्रश्न यह है कि जब पाठक प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध से भी अभिभूत होता है तो क्या मार्क्सवादी पाठक बिहारी के काव्य का आस्वादन नहीं कर सकता? एक प्रबुद्ध आस्वादक बिहारी से लेकर घनानंद, विद्यापति, केशव, सूर, तुलसी, कबीर, निराला, धूमिल, मुक्तिबोध आदि के मार्क्सवादी या गैर मार्क्सवादी हर प्रकार के काव्य का आस्वादन करता है। लेकिन यदि वह मार्क्सवाद या वर्ग-संघर्ष में विश्वास रखने वाला है तो वर्ग-संघर्ष को क्षीण करने वाला साहित्य उसे विरोध, विद्रोह, जुगुप्सा, क्रोध आदि से सिक्त करेगा। ठीक इसी प्रकार रीतिकालीन, भक्तिकालीन काव्य में रति रखने वाले पाठक को मार्क्सवादी काव्य में कोई रमणीय तत्त्व अनुभव नहीं होगा। वह भी काव्य में वर्णित मार्क्सवादी मूल्यों के प्रति विरोधादि से सिक्त हो उठेगा। इसलिए रस के संबंध में महत्वपूर्ण आस्वादन नहीं, आस्वादन की प्रक्रिया के समय उत्पन्न आश्रय की वह भाव अवस्था है जो उसकी संवेदनात्मक, प्रतिवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं में उजागर होती है। फिर भी एक पाठक, श्रोता या दर्शक की प्रतिवेदनात्मक व्याख्या के प्रति इतना सूक्ष्म और सार्थक चिंतन करने वाले डॉ. राकेश गुप्त एक मार्क्सवादी पाठक की बिहारी के काव्य के प्रति आस्वादन की समस्या को इतने सतही संदर्भों में पता नहीं क्यों ले बैठे? हमें ऐसा लगता कि काव्य के आस्वादन के प्रति उनकी दृष्टि कोमल और परंपरावादी रही है, जबकि आस्वादन के विवेचन के संबंध में उनकी दृष्टि वैज्ञानिक है। डॉ. राकेश गुप्त के प्रतिक्रिया सिद्धांत को पुनः उठाते हुए कि काव्य का अध्ययन करते हुए पाठक के मन में मनौवैज्ञानिक प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ अनुभूतियां या भावनाएं जागती हैं… जागी हुई भावनाएं कविता में वर्णित भावना से सदा मेल नहीं खातीं, कभी उनका रूप संवेदनात्मक होता है और कभी प्रतिवेदनात्मक’ के माध्यम से हम यह कहना चाहेंगे कि रस की स्थिति आश्रयों की रुचियों के अनुसार जब अपने संवेदनात्मक पक्ष में उभरती है तो आश्रय, काव्य में वर्णित मूल्यों, पात्रों, आदि से तादात्म्य स्थापित करते हैं, उस काव्य के प्रति अपनी रुचि में प्रगाढ़ता लाते हैं, और इस स्थिति में सारा-का-सारा काव्य उन्हें रमणीय अनुभव होता है। लेनिक जब काव्य के आस्वादकों को यह अनुभव होता है कि प्रस्तुत सामग्री उनके संस्कारों अर्थात् जीवन-मूल्यों, आस्थाओं, परंपराओं-धारणाओं आदि के विपरीत जा रही है तो उनके मन में उस काव्य-सामग्री के प्रति विरोध की ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है, जिसका रसात्मकबोध रति के विरोधी भावों जैसे क्रोध, आक्रोश, असंतोष, घृणा आदि के अंतर्गत देखा जा सकता है।
सन्दर्भ –
1. डॉ. राकेश गुप्त का रस विवेचन पृष्ठ-26
2. वही , पृष्ठ-28
3. वही , पृष्ठ-65 व् 193
————————————————————–
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
495 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
मेहनत कड़ी थकान न लाती, लाती है सन्तोष
मेहनत कड़ी थकान न लाती, लाती है सन्तोष
महेश चन्द्र त्रिपाठी
*सत्य ,प्रेम, करुणा,के प्रतीक अग्निपथ योद्धा,
*सत्य ,प्रेम, करुणा,के प्रतीक अग्निपथ योद्धा,
Shashi kala vyas
💐कुड़ी तें लग री शाइनिंग💐
💐कुड़ी तें लग री शाइनिंग💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
शोर से मौन को
शोर से मौन को
Dr fauzia Naseem shad
मेरी माटी मेरा देश भाव
मेरी माटी मेरा देश भाव
ओम प्रकाश श्रीवास्तव
प्रेम और आदर
प्रेम और आदर
ओंकार मिश्र
उतर गए निगाह से वे लोग भी पुराने
उतर गए निगाह से वे लोग भी पुराने
सिद्धार्थ गोरखपुरी
"एक विचार को प्रचार-प्रसार की उतनी ही आवश्यकता होती है
शेखर सिंह
गणपति अभिनंदन
गणपति अभिनंदन
Shyam Sundar Subramanian
मेला एक आस दिलों🫀का🏇👭
मेला एक आस दिलों🫀का🏇👭
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
जब कोई हाथ और साथ दोनों छोड़ देता है
जब कोई हाथ और साथ दोनों छोड़ देता है
Ranjeet kumar patre
बगुले तटिनी तीर से,
बगुले तटिनी तीर से,
sushil sarna
दीवाली
दीवाली
Mukesh Kumar Sonkar
3132.*पूर्णिका*
3132.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
*सूनी माँग* पार्ट-1
*सूनी माँग* पार्ट-1
Radhakishan R. Mundhra
मित्र
मित्र
लक्ष्मी सिंह
✍️फिर वही आ गये...
✍️फिर वही आ गये...
'अशांत' शेखर
करीब हो तुम मगर
करीब हो तुम मगर
Surinder blackpen
बचपना
बचपना
Satish Srijan
■ आज का मुक्तक...
■ आज का मुक्तक...
*Author प्रणय प्रभात*
मै मानव  कहलाता,
मै मानव कहलाता,
कार्तिक नितिन शर्मा
खून पसीने में हो कर तर बैठ गया
खून पसीने में हो कर तर बैठ गया
अरशद रसूल बदायूंनी
खाक मुझको भी होना है
खाक मुझको भी होना है
VINOD CHAUHAN
श्रीराम किसको चाहिए..?
श्रीराम किसको चाहिए..?
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
कविता कि प्रेम
कविता कि प्रेम
डॉ विजय कुमार कन्नौजे
अब मुझे महफिलों की,जरूरत नहीं रही
अब मुझे महफिलों की,जरूरत नहीं रही
पूर्वार्थ
*पहले-पहल पिलाई मदिरा, हॅंसी-खेल में पीता है (हिंदी गजल)*
*पहले-पहल पिलाई मदिरा, हॅंसी-खेल में पीता है (हिंदी गजल)*
Ravi Prakash
प्रेम तो हर कोई चाहता है;
प्रेम तो हर कोई चाहता है;
Dr Manju Saini
"मधुर स्मृतियों में"
Dr. Kishan tandon kranti
दर्द -ऐ सर हुआ सब कुछ भुलाकर आये है ।
दर्द -ऐ सर हुआ सब कुछ भुलाकर आये है ।
Phool gufran
Loading...