Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
6 Mar 2017 · 9 min read

विचार, संस्कार और रस [ एक ]

समूची मानवजाति की रागात्मक चेतना का विकास विशिष्ट स्थान, समाज, देश और काल की उन परिस्थितियों के बीच हुआ है, जिन्होंने उसकी चेतना को विभिन्न तरीकों से झकझोरा या रिझाया है। मानव का इस परिस्थितियों के प्रति समायोजित होने की स्थिति में रत्यात्मकता के रूप में रमणीयता तथा असमायोजन की स्थिति में पलायन या परिस्थितियों को बदल डालने की प्रक्रिया आदिकाल से चल रही है और जब तक मानव-अस्तित्व है, यह प्रक्रिया चलती रहेगी।
परिस्थितियों के अनुसार मानव के अस्तित्व की सुरक्षा का चक्र जैसी-जैसी वैचारिक प्रक्रिया से होकर गुजरता है, उसी वैचारिक प्रक्रिया के अनुसार उसमें विभिन्न प्रकार की रागात्मकवृत्तियों का निर्माण तथा विकास होता चलता है। मानव अपनी सुरक्षा के लिए, परिस्थिति, परिवेश या काल में जैसी वैचारिक-प्रक्रिया अपनाता है, वह प्रक्रिया ही उसके रस या आनंद का विषय बनती है।
मानव की यह वैचारिक-प्रक्रिया किस प्रकार रस और आनंद की अवस्था तक पहुँचती है, इसको समझने के लिए हमें मानव के गतिशील एवं सुप्त संस्कारों को समझना आवश्यक है। सामान्यतः संस्कार शब्द का अर्थ विवाह आदि के कृत्य, शुद्धि-सुधार, पवित्रता के कर्म आदि से लिया जाता है। यदि हम शब्द के अर्थ की गहराई में जाएँ तो संस्कार मानव की उस आत्मिक व्यवस्था के द्योतक हैं, जिनके मूल में मानव में नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का समावेश होता है। संस्कार हमें यह सिखलाते हैं कि मानव, अपने समाज के प्रति कैसा व्यवहार करे। लेकिन संस्कारों का उद्भव एवं विकास चूँकि विभिन्न देशों, जातियों, संप्रदायों एवं परिवेशों के बीच हुआ है, इसलिए संस्कारों संबंधी नैतिक मूल्यवत्ता भी इन्हीं दायरों में सिमटती हुई विकसित हुई है? जिसका परिणाम यह हुआ है कि एक समाज की नैतिकता, दूसरे समाज की नैतिकता के, एक संप्रदाय की सांप्रदायिकता, दूसरे संपदाय की सांप्रदायिकता के, एक समाज की धार्मिकता, दूसरे समाज की धार्मिकता के, एक राष्ट्र की राष्ट्रीयता, दूसरे राष्ट्र की राष्ट्रीयता के, एक वर्ग की आर्थिकता, दूसरे वर्ग की आर्थिकता के युग-युग से आड़े आती रही है। और जब तक लोक या समाज में इस प्रकार के दायरे कायम रहेंगे, यह समस्या, समस्या ही बनी रहेगी। इसलिए संस्कारों के दायरों पर कतिपय प्रकाश डालना यहाँ अभीष्ट होगा।
1. धार्मिक संस्कार-
धर्म का अर्थ मनुष्य के उस व्यवहार से है, जो नैतिक, सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों से युक्त हो, लेकिन धर्म शब्द संप्रदायों की सीमाओं में कैद होकर सिर्फ अलौकिक शक्तियों संबंधी क्रियाकलापों तक रूढ़ है। इसलिए विभिन्न संप्रदाय, विभिन्न दैवीय शक्तियों के प्रति किस प्रकार की पूजा-पद्यति तथा उनके किस प्रकार के स्वरूपों को अपनाकर चलते हैं, यह स्वीकारोक्तियाँ ही उनके धार्मिक स्वरूपों को स्पष्ट करने में सहायक हो सकती हैं। अतः विस्तार में न जाकर यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि जैसे हिंदू-संप्रदाय के धार्मिक संस्कारों का विकास सगुण, निर्गुण, शैव, वैष्णव, सनातन, आर्य जैसे कई संप्रदायों, उपसंप्रदायों से होकर गुजरा है, ठीक उसी प्रकार इस्लाम, ईसाई, बौद्ध संप्रदायों से लेकर विश्व के अन्य संप्रदायों का विकास भी विभिन्न उपसंप्रदायों आदि में विकसित हुआ है। इन संप्रदायों के धार्मिक-संस्कार चूँकि दूसरे संप्रदायों के धार्मिक संस्कारों से विपरीत एवं भिन्न हैं, इसलिए इन संप्रदायों की रूढ़ धार्मिकता, अन्य संप्रदायों की रूढ़ धार्मिकता को ग्रहण करने, या स्वीकारने में अवरोधक का कार्य करती है, जिसका परिणाम आज विभिन्न संप्रदायों का हिंसक-रक्तपिपासु रूप हम सबके लिए चिंता का विषय बना हुआ है। बहरहाल एक सांप्रदायिक मनुष्य को उसकी संप्रदाय-संबंधी काव्य-सामग्री जहाँ रति और भक्ति जैसे रमणीय तथ्यों की ओर ले जाएगी, वहीं उसे दूसरे संप्रदाय की काव्य-सामग्री प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध से सिक्त करेगी। बाबरी मस्जिद प्रकार इसका ज्वलंत प्रमाण है।
2. सामाजिक संस्कार-
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज की रीति-रिवाज, मर्यादा, परंपरा आदि के अनुसार ऐसे सामाजिक संस्कार ग्रहण करता है जो उसे उस समाज के साथ तालमेल बिठाने में सहायक हुआ करते हैं। माँ, बहिन, बेटी, पिता, पुत्र से लेकर पति-पत्नी, चाचा-ताऊ , मौसा-मौसी तक के सारे-के-सारे मानवीय रिश्ते मनुष्य के उन वैचारिक मूल्यों की देन हैं, जिन्हें वह जन्म के बाद संस्कार के रूप में ग्रहण करता है और इन रिश्तों की सार्थकता के अनुसार आजीवन अपने व्यवहार को मर्यादित किए रहता है। मनुष्य के व्यवहार के इस संस्कार रूप का परिणाम यह है कि मनुष्य अपनी प्रेमिका या पत्नी के साथ तो संभोग जैसी प्रक्रिया से आसानी से गुजर जाता है, परंतु बहिन, बेटी या माँ के साथ उक्त प्रकार का विचार भी उसे जुगुप्सा से सराबोर कर डालता है। पूरा-का-पूरा हिंदी साहित्य इस बात का प्रमाण है कि आदिकाल में शकुन्तला-दुष्यन्त, भक्तिकाल में राम-सीता, रीतिकाल में राधा-कृष्ण या आधुनिक काव्य के नारी-पुरुष पात्र, प्रेमी-प्रेमिका के स्वरूप में ही रति या शृंगार संबंधी क्रियाकलापों से गुजरे हैं, उनमें चुंबन, मिलन, विहँसन जैसे अनुभाव अन्य रिश्तों के साथ जागृत नहीं हुए हैं, यदि ऐसी अवस्था आई भी है तो उसका स्वरूप संभोग के स्वरूप से विपरीत है या स्वीकार नहीं किया गया है।
3. आर्थिक संस्कार-
हमारा संपूर्ण भारतीय समाज या राष्ट्र पूंजीवादी व्यवस्था के कारण आर्थिक संबंधों पर आधरित है। आज ऐसा लगता है जैसे सामाजिक संबंधों की सार्थकता मात्र आर्थिक संबंधों की सार्थकता बनकर रह गई है, इसलिए पूरा का पूरा भारतीय समाज ऐसे आर्थिक चरित्र को अपनाता जा रहा है जिसके बीच मानवीय मूल्यवत्ता मृतप्रायः हो गयी है। धन एकत्रित करने की आपाधापी ने मनुष्य को ऐसे आर्थिक संस्कारों से ग्रस्त कर डाला है जो मनुष्य को शोषण, लूट-खसोट, डकैती, राहजनी और फरेब के रास्तों पर बढ़ने को प्रेरित करते हैं, जिसका परिणाम यह है कि चाहे ‘माया महा ठगिनि हम जानी’ जैसे उपदेश देनेवाले धर्म के ठेकेदार हों, चाहे समाजवाद या साम्यवाद का ढिंढोरा पीटने वाले नेता हों, सबके सब आदर्शवादी नारों, उपदेशों के बल पर अपने आर्थिकपक्ष को मजबूत करने में लगे हुए हैं। आर्थिक संस्कारों का वर्तमान स्वरूप इतना जटिल, क्लिष्ट और घिनौना हो चुका है कि उस पर जितना प्रकाश डाला जाए उतना ही कम है। जबकि आर्थिक संस्कारों का आदिकाल स्वरूप सिर्फ जीवनसुरक्षा या संततिसुरक्षा के सत्प्रयासों तक ही सीमित था, जिसका अपवाद रूप राजा या महाराजा या उनसे जुड़े कुछ खास व्यक्तियों, महाजनों आदि में जरूर मिलता है। लेकिन आज स्थिति यह है कि आर्थिक संस्कारों का राजा-महाराजाओं से शुरू हुआ संक्रामक रोग जनसामान्य में भी घुसपैंठ कर चुका है। आर्थिक संस्कारों के वर्तमान स्वरूप की देन यह है कि धन के बल पर व्यवसायी से लेकर राजनेताओं तक सारी साम्राज्यवादी ताकतें आम आदमी का चरित्र, उसकी इज्जत खरीदने में कमजोर वर्ग पर अनाचार, अत्याचार, अन्याय करने में सीना ठोंककर शान के साथ लगी हुई है। दहेज जैसी कुप्रथा भी इन्हीं आर्थिक संस्कारों की देन है। कुल मिलाकर आर्थिक संस्कारों का यह अजगरी चेहरा आज आदमी की सुख-शांति से लेकर उसकी सत्योन्मुखी संवेदनशीलता को निगलता जा रहा है। आर्थिक संस्कारों के कारण वर्तमान साहित्य में उभरा वर्ग-संघर्ष और दलित वर्ग की पीड़ा का करुणामय स्वरूप, कवि के माध्यम से आर्थिक संस्कारों की घिनौनी वृत्तियों से मुक्त कराने के लिए जिस प्रकार की चिंतन शैली और अभिव्यक्ति को अपना रहा है, उसकी रसात्मकता, आक्रोश, विरोध और विद्रोह आदि के रूप में देखी जा सकती है।
4. राजनीतिक संस्कार-
गाँव के मुखियाओं, कबीले के सरदारों, राजा-महाराजाओं की आदिकालिक व्यवस्था से लेकर वर्तमान व्यवस्था चाहे जो रही हो, उसके मूल में जिस प्रकार के राजनीतिक संस्कारों की व्यवस्था अंतर्निहित है, उसकी प्रमुख कार्यप्रणाली या समस्त वैचारिक प्रक्रिया, जनता पर शासन करने की ही रही है। उक्त कार्य एक जाति, एक व्यक्ति या एक समाज ने, दूसरे व्यक्ति, दूसरी जाति, दूसरे समाज को शासित करने के लिए अपनी बौद्धिक, आर्थिक और शारीरिक क्षमताओं के बल पर किया है। यह राजनीतिक संस्कारों का ही परिणाम है कि अंग्रेजों ने पूरे विश्व को शासित करने का प्रयास किया। हिटलर ने पूरे विश्व की समस्त जातियों से, अपनी जाति को श्रेष्ठ और शासक माना। गलत राजनीतिक संस्कारों से ग्रस्त शासक, न्याय और सुरक्षा के नाम पर जनसामान्य का शोषण, उस पर अत्याचार युग-युग से करते आए हैं। शासकों के घिनौने संस्कारों का स्वरूप वर्तमान में भी ज्यों-का-त्यों विद्यमान है। वर्तमान कविता में गलत राजनीति के प्रति जिस प्रकार विरोध, विद्रोह, प्रहार और चुनौती के स्वर मुखरित हो रहे हैं, वह मानव की एक ऐसी आंतरिक छटपटाहट के द्योतक हैं जो मानव को हर हालत में इस शोषक राजनीतिक व्यवस्था से मुक्त देखना चाहते हैं।
5. राष्ट्रीय संस्कार-
हर राष्ट्र की सुरक्षा, एकता, अखंडता, ऐसे राष्ट्रीय चिंतकों की सूझ-बूझ और वैचारिक प्रक्रिया पर निर्भर हुआ करती है, जो राष्ट्र के अस्तित्व को जाति, धर्म , व्यक्ति, संप्रदाय आदि से ऊपर उठाकर मूल्यांकित करते हैं। एक राष्ट्रीय संस्कारों से ओत-प्रोत व्यक्ति या नागरिक की विशेषता यह होती है वह उठते-बैठते, जीते-मरते सिर्फ राष्ट्र के अस्तित्व की सुरक्षा के बारे में सोचता है। अमरक्रांतिकारी भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशपफाक, सूर्यसेन तिलक, सुभाष आदि राष्ट्रीय संस्कारों से युक्त ऐसे महानायकों के ज्वलंत प्रमाण हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय अस्तित्व के लिए असह्य कष्ट झेले, हँसकर फाँसी पर चढ़े या सीने पर गोलियाँ खायीं। राष्ट्रीय संस्कारों की ओजपूर्ण अभिव्यक्ति जिस प्रकार भगतसिंह, बिस्मिल, अशपफाक आदि के साहित्य में हुई है, ऐसे प्रमाण अत्यंत दुर्लभ हैं।
6. व्यक्तिवादी संस्कार-
जब किसी व्यक्ति की वैचारिक अवधारणाएँ समाज, राष्ट्र या मानव के स्थान पर स्वअस्तित्व की पुष्टि या पोषण करने लगती हैं तो उस व्यक्ति में ऐसे संस्कारों के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जो नितांत स्वार्थपरक, वैयक्तिक होती है। एक व्यक्तिवादी संस्कारों से ग्रस्त व्यक्ति की विशेषता यह होती है कि वह छल-प्रपंच, झूठ, अनैतिकता, व्यभिचार, थोथे दंभ का सहारा लेकर सामाजिक, राष्ट्रीय और मानवीय मूल्यों की हत्या करने में हर समय लगा रहता है। ऐसा व्यक्ति चारित्रिक पतन के ऐसे बदबूदार तहखानों में जीता है, जिसमें घिनौनी मानसिकता के कीड़े हर समय बुदबुदाते रहते हैं।
वर्तमान समय में भारतीय फिल्म निर्माता, अपराध-कथा लेखक या कविसम्मेलनों के चुटकुलेबाज अपनी अर्थपूर्ति के लिए रसात्मकता के नाम पर, जिस प्रकार का गैर-मानवीय जहर दे रहे हैं, ठीक उसी प्रकार का जहर आदिकाल से लेकर अब तक हमारे धर्म के ठेकेदारों, तथाकथित रसवादियों ने दिया। यह व्यक्तिवादी संस्कारों का ही परिणाम है कि-
नर्तकी के पाँव घायल हो रहे
देखता एय्याश कब यह नृत्य में।
व्यक्तिवादी संस्कारों की शिकार सारी-की-सारी साम्राज्यवादी ताकतें, चाहे वे धर्मगुरु , पुजारी-पंडे, महाजन, उद्योगपति, दुकानदार, पक्ष-विपक्ष के नेता, सरकारी मशीनरी के नुमाइंदे हों, अधिकांशतः अनैतिकता का सहारा लेकर पूरे राष्ट्र को तहस-नहस करने पर तुले हैं। यह व्यक्तिगत संस्कारों का ही परिणाम है कि एक बलात्कारी को बलात्कार में, डकैत को डकैती डालने, तस्कर को तस्करी जैसे अमानवीय कृत्यों में सुखानुभूति होती है। कुल मिलाकर व्यक्तिवादी संस्कारों से ग्रस्त व्यक्ति का सुख, दूसरों को हर स्तर पर दुःखानुभूति से ही सिक्त करता है। इसी तथ्य की मार्मिक अभिव्यक्ति महाकवि रहीम अपने एक दोहे के माध्यम से इस प्रकार करते हैं-
कह रहीम कैसे निभै बेर-केर कौ संग
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।
7. मानवीय संस्कार-
मानवीय संस्कार, मानव के ऐसे मूल्य हैं, जिनकी अर्थवत्ता समूचे विश्व को बिना किसी भेदभाव के एक रागात्मकता के साथ जोड़ती या मूल्यांकित करती है। मानवीय संस्कारों के अंतर्गत समूचे लोक की मंगलकामना एक ऐसी वैचारिक प्रक्रिया ग्रहण करती है, जिसमें व्यक्तिगत विद्वेष, अत्याचार, बर्बरता, शोषण, उत्पीड़न जैसी अमानवीयता का किंचित स्थान नहीं होता। मानवीय मूल्यों से संस्कारित व्यक्ति का सुख-दुःख समूचे लोक के सुख-दुःख से जुड़ जाता है। लोक में ऐसे अनेक महान् पुरुष हमें मिल जायेंगे, जिन्होंने अपना जीवन-राग, मानव-राग बनाकर जीया। कार्ल मार्क्स की समूची संवेदनशीलता विश्व के उन शोषित और पीडि़त जनों के पक्ष में उभरी, जो शोषक वर्ग के हमेशा से शिकार होते आए हैं।
आधुनिक भारतीय साहित्य का रुझान जिस प्रकार मानवीय मूल्यों की ओर बढ़ा है, वह रुझान प्रमुख रूप से कबीर से प्रारंभ हुआ था और भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, धूमिल, गुलेरी, रेणु से लेकर आज जाने कितने युवा और प्रतिष्ठित साहित्यकारों में हैं, जो भारतीय समाज को मानवीय मूल्यों से संस्कारित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
इस लेख में संस्कारों के विभिन्न रूपों पर प्रकाश डालने के पीछे हमारा मकसद यह बताना रहा है कि संस्कार मूलतः हमारे वे वैचारिक मूल्य होते हैं, जिनके द्वारा हमारी रागात्मकवृत्तियों का निर्माण होता है। वीरगाथाकालीन काव्य में राजाओं के व्यक्तिवादी चिंतन ने जहाँ वीरता के नाम पर मानवता को रौंदा, वहाँ भक्तिकाल में राजाओं के स्वरूप दैवीय शक्तियों के प्रतीक बनकर, श्रद्धा और भक्ति के पात्र हो गए। रीतिकाल, छायावाद, प्रयोगवाद का साहित्य नारी को भोग-विलास का शृंगारपरक वर्णन बना। इसी तरह इस सबसे अलग भारतेंदु, द्विवेदी और वर्तमानकाल सत्योन्मुखी व्यवस्था की स्थापनार्थ व्यक्तिवादी मूल्यों के विरोध में संघर्ष की गाथा बना है। इसके पीछे साहित्य के मूल में कवि के वह संस्कार कार्य कर रहे हैं, जिनकी वैचारिक ऊर्जा अंततः किसी-न-किसी रस में तब्दील होती है।
———————————————————————
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-

Language: Hindi
Tag: लेख
722 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
ग़ज़ल
ग़ज़ल
rekha mohan
“देवभूमि क दिव्य दर्शन” मैथिली ( यात्रा -संस्मरण )
“देवभूमि क दिव्य दर्शन” मैथिली ( यात्रा -संस्मरण )
DrLakshman Jha Parimal
#बह_रहा_पछुआ_प्रबल, #अब_मंद_पुरवाई!
#बह_रहा_पछुआ_प्रबल, #अब_मंद_पुरवाई!
संजीव शुक्ल 'सचिन'
*
*"मजदूर की दो जून रोटी"*
Shashi kala vyas
याद  में  ही तो जल रहा होगा
याद में ही तो जल रहा होगा
Sandeep Gandhi 'Nehal'
रिश्ते मोबाइल के नेटवर्क जैसे हो गए हैं। कब तक जुड़े रहेंगे,
रिश्ते मोबाइल के नेटवर्क जैसे हो गए हैं। कब तक जुड़े रहेंगे,
Anand Kumar
गाथा बच्चा बच्चा गाता है
गाथा बच्चा बच्चा गाता है
Harminder Kaur
अतुल वरदान है हिंदी, सकल सम्मान है हिंदी।
अतुल वरदान है हिंदी, सकल सम्मान है हिंदी।
Neelam Sharma
बसंत
बसंत
manjula chauhan
कमाई / MUSAFIR BAITHA
कमाई / MUSAFIR BAITHA
Dr MusafiR BaithA
मौन सभी
मौन सभी
sushil sarna
मौहब्बत में किसी के गुलाब का इंतजार मत करना।
मौहब्बत में किसी के गुलाब का इंतजार मत करना।
Phool gufran
एक दोहा...
एक दोहा...
डॉ.सीमा अग्रवाल
मैं जवान हो गई
मैं जवान हो गई
Basant Bhagawan Roy
* आओ ध्यान करें *
* आओ ध्यान करें *
surenderpal vaidya
अनंत का आलिंगन
अनंत का आलिंगन
Dr.Pratibha Prakash
मेरी चाहत रही..
मेरी चाहत रही..
हिमांशु Kulshrestha
हाथ पर हाथ धरे कुछ नही होता आशीर्वाद तो तब लगता है किसी का ज
हाथ पर हाथ धरे कुछ नही होता आशीर्वाद तो तब लगता है किसी का ज
Rj Anand Prajapati
करके घर की फ़िक्र तब, पंछी भरे उड़ान
करके घर की फ़िक्र तब, पंछी भरे उड़ान
महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
3162.*पूर्णिका*
3162.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
कोरोना संक्रमण
कोरोना संक्रमण
Dr. Pradeep Kumar Sharma
काश तुम मेरी जिंदगी में होते
काश तुम मेरी जिंदगी में होते
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
जी रहे हैं सब इस शहर में बेज़ार से
जी रहे हैं सब इस शहर में बेज़ार से
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
"ठीक है कि भड़की हुई आग
*Author प्रणय प्रभात*
"चंदा मामा"
Dr. Kishan tandon kranti
कानून हो दो से अधिक, बच्चों का होना बंद हो ( मुक्तक )
कानून हो दो से अधिक, बच्चों का होना बंद हो ( मुक्तक )
Ravi Prakash
चंडीगढ़ का रॉक गार्डेन
चंडीगढ़ का रॉक गार्डेन
Satish Srijan
छल
छल
गौरव बाबा
(वक्त)
(वक्त)
Sangeeta Beniwal
💐अज्ञात के प्रति-120💐
💐अज्ञात के प्रति-120💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
Loading...