**वाह रे मन**
काया का आवरण,जिसमें बैठा मन।
समझ सके न हम, कैसी इसकी भटकन ।।
तन और जीवन से बड़ा कौन सा धन।
तथापि,
देता रहता क्यों कर तू उलझन।।
वाह रे मन!
कैसा तेरा यह दीवानापन,
गति में तेरी क्यों, इतना तेजपन।।
वाह रे मन!
कभी यहां तो कभी वहां,
घूमता रहता तू दनादन।।
ना इतना उड़ा कर,
काया ही जब तेरा घर।
मानेंगे उपकार, तेरा जन जन।।
लक्ष्य पर हमें लगा दे,
व्यर्थ के भाव भगा दे।
नेकी से ही जीवन जीते जाए हम।
छूट जाए “अनुनय” बाकी सारी उलझन।।
**राजेश व्यास अनुनय**